SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०८ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन उपकारों की संख्या यद्यपि अनन्त है, तथापि कुछ का निर्देश वाक्यपदीय में किया गया है । मुख्यतया ये वही उपकार हैं जो उपर्युक्त आधार-त्रय की व्याख्या में समर्थ हैं 'अविनाशो गुरुत्वस्य प्रतिबन्धे स्वतन्त्रता । दिग्विशेषादवच्छेद इत्याद्या भेदहेतवः ॥-वा०प० ३।७।१५० अधिकरण-भेद के कारण-रूप इन उपकारों में पहला है-अविनाश । कुछ आधार अपने आधेय का इस प्रकार उपकार करते हैं कि आधेय का नाश न हो सके। तिल ( आधार ) का नाश हो जाय तो तैल ( आधेय ) भी बिखर कर नष्ट हो जाय । इस प्रकार तिल के द्वारा तैल का अविनाश-रूप उपकार किया जाता है। दूसरा उपकार हैगुरुत्व ( भार, वजन ) के प्रतिबन्ध ( रोकने ) में स्वतन्त्र होना । 'पर्यके शेते' इस उदाहरण में पर्यङ्क ( आधार ) का उपकार यही है कि वह शयन करने वाले व्यक्ति के गुरुत्व को रोकने में स्वतन्त्र रूप से काम कर रहा है। इस उपकार के अभाव में व्यक्ति अपने भार के कारण पृथ्वी पर ही आ जाय । तीसरा उपकार है--दिग्विशेष से सम्बन्ध की व्याप्ति ( दिग्विशेषादवच्छेदः ) । 'खे शकुनयः' इसमें आकाश ( आधार ) का पक्षियों के प्रति यह उपकार है कि पक्षी दिशाविशेष से सम्बद्ध हैं, उनके निम्नदेश के सम्बन्ध का अपाकरण करते हुए ही आधेय के उपयोग में आधार आ रहा है। हेलाराज आदि-शब्द से अन्य कई गम्यमान उपकारों में शकटादि आधार से देशविशेष की सम्प्राप्ति ( पहुँचना ) का उल्लेख करते हैं, जिसका वाक्य होगाशकटे याति । पुनः ‘गुरौ वसति' में गुरु ( आधार ) के द्वारा शिष्यों में संस्कारातिशय लाना भी उपकार है। पर्यङ्क भी उपर्युक्त उपकार के साथ विश्राम ( सौस्थित्यम् ) रूप उपकार भी करता है। दिग्विशेष के सम्बन्ध के रूप में जो आधार द्वारा आधेय का उपकार होता है उसी में कई उदाहरण हैं-'प्राच्यामादित्य उदेति, प्रतीच्यामस्तमेति । दक्षिणस्यामगस्त्यः, उत्तरस्यां ध्रुवः'' । अब हम यहाँ उपर्युक्त संक्षेपतः निर्दिष्ट भेदों का पृथक् निरूपण करेंगे। (१) व्यापक अधिकरण - इसका सामान्य नाम अभिव्यापक भी है। इसकी दो परिस्थितियाँ हैं -आधेय पदार्थ के साथ समवाय-सम्बन्ध रहना तथा अपने सभी अवयवों में आधेय द्वारा व्याप्ति । इसके उदाहरण हैं-तिलेषु तैलम्, घटे रूपम्, शरीरे चेष्टा, दधति सपिः । पाणिनीयेतर सम्प्रदाय के कुछ वैयाकरणों ने तिल के व्यापकत्व पर शंका प्रकट की है। सुषेण कविराज ( कातन्त्र ) तिल तथा तैल में समवाय-सम्बन्ध का अभाव देखकर तिल को औपश्लेषिक अधिकरण मानते हैं । १. द्रष्टव्य-हेलाराज ३, पृ० ३४९ तथा ल० म०, पृ० १३२५-२६ । २. ( क ) 'यत्र सर्वावयवावच्छेदेन व्याप्तिस्तत्' । -ल० म०, पृ० १३२७ (ख) 'यत्र सर्वावयवावच्छेदेनाधेयस्य व्याप्तिः, ... 'समवायेन यदधिकरणमिति यावत्' । --प० ल० म० की वंशी-टीका, पृ० १५८ ३.निनेन्द्रबुद्धि भी ( न्यास १, पृ० ५६२) तिल-तल में संपोग-सम्बन्ध मानते
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy