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________________ अधिकरण-कारक ३०३ जहाँ क्रिया से अन्वय होता है वहाँ कारकत्व का व्यवहार भी होगा, अन्यथा सप्तमी का अर्थ अधिकरणत्व अथवा आधेयत्व कहकर शाब्दबोध कराया जा सकता है। गदाधर व्युत्पत्तिवाद में ऐसे उदाहरणों में दो सुझाव देते हैं। पहला यह है कि व्याकरण के नियमानुसार 'वीणायां शब्दः' इत्यादि में 'भवति' क्रिया का अध्याहार कारकता के निर्वाह के लिए किया जाय । दूसरा सुझाव यह है कि 'सप्तम्यधिकरणे च' ( पा० २।३। ३६ ) इस पाणिनि-सूत्र में 'च' शब्द अकारकरूप आधारवाची शब्द में सप्तमी के प्रयोग का विधान करता है । इससे निष्कर्ष निकलता है कि नैयायिक आधारमात्र को अधिकरण नहीं कहते । क्रिया के परम्परया आश्रय होने पर उन्हें अधिकरण-कारक कहते हैं, क्रियाश्रय नहीं होने पर आधाराधेय के रूप में स्वरूपसम्बन्ध होता है । ___इन तथ्यों पर विचार करने पर 'गृहे स्थाल्यामोदनं पचति' का शाब्दबोध इस प्रकार होगा-- 'गृहाधिकरणक-स्थाल्यधिकरणक-ओदनकर्मक-पाकानुकूल-कृतिमान्' । यहां अधिकरण क्रियान्वित होने से कारक है। दूसरी ओर 'भूतले घट:' के शाब्दबोध में नव्यनैयायिकों के बीच ही पर्याप्त भेद है। प्राचीनों का कथन है कि सप्तमी का अधिकरणत्व अर्थ है, पुनः प्रकृत्यर्थ ( मूलार्थ, वाच्यार्थ ) का आश्रय लेने के कारण प्रथमान्त ( घट: ) शब्द का अन्वय निरूपक के रूप में होता है। तदनुसार बोध होगा - 'भूतलनिष्ठाधिकरणता-निरूपको घट:' । भवानन्द व्यंजना से इन प्राचीन मत में अपनी अनास्था प्रकट करते हुए नव्यमत की स्थापना करते हैं। प्राचीन आचार्य जो निरूपकत्व-सम्बन्ध के बल पर अन्वय करते हैं वह दोषपूर्ण है । निरूपकत्व-सम्बन्ध वृत्ति का नियामक नहीं होता है, अतः निषेध-वाक्यों में नार्थ के साथ उसका अन्वय नहीं किया जा सकता। 'भूतले घटो नास्ति' ऐसे वाक्यों में जिस सम्बन्ध के द्वारा प्रतियोगित्व ( विरोधित्व ) की प्रतीति अभाव-अंश में होती है वह प्रतियोगितावच्छेदक सम्बन्ध है, किन्तु निरूपकत्व को ऐसा सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता। इसीलिए ऐसे वाक्यों में यह निष्फल सम्बन्ध हो जायगा। अतएव हम सप्तमी का अर्थ आधेयत्व लें और प्रकृत्यर्थ का निरूपक होने से प्रथमान्तार्थ का अन्वय अधिकरण के रूप में करें'भूतलनिरूपित-आधेयत्ववान् घटः' । कहना नहीं होगा कि नैयायिकों का अधिकरण-विवेचन अत्यन्त सूक्ष्म कक्षा का अवगाहन करता है। नव्यव्याकरण में अधिकरण-विचार : कौण्ड तथा नागेश वैयाकरणभूषण में कौण्डभट्ट ने अधिकरण का विवेचन एक अनुच्छेद में किया है ( वै० भू०, पृ० १०९) । अधिकरण से सम्बद्ध सप्तमी का आश्रयरूप अर्थ उन्हें पहले से ही दीक्षित द्वारा निर्धारित मिलता है । आश्रयत्व अखण्ड शक्ति के रूप में अवच्छेदक धर्म है। किन्तु आश्रयत्व मात्र को अधिकरणत्व कह देने से यह अर्थ नहीं निकलता १. 'अथवा सप्तम्यधिकरणे चेति चकारेणाकारकाधारवाचिनोऽपि सप्तमी' । -व्यु० वा०, पृ० २७०
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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