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________________ अधिकरण-कारक २९९ इन उदाहरणों में भी 'अस्ति, भवति' जैसी क्रिया लगाकर उसका सम्बन्ध आधार से दिखलाते हए नियत अधिकरण की स्थापना के द्वारा अव्यवस्था का निवारण किया जा सकता है । बदरीफलादि कर्ता के माध्यम से कुण्डादि आधार होंगे - यह दिखलाना कोई कठिन नहीं । अस्ति-क्रिया बदरीफल में है ( कुण्ड में नहीं ), बदरीफल कुण्ड में है अर्थात् कुण्ड अस्ति-क्रिया के कर्ता का आधार होने के कारण अधिकरण है। इस प्रकार इनमें आधाराधेय-भाव होने पर भी कोई विसङ्गति नहीं है। भवानन्द को फिर भी एक दूसरा दोष इसमें दिखलाई पड़ता है। वे पूछते हैं कि इस 'स्वाधेयत्व' का क्या निर्वचन है ? यदि इसका अर्थ अपने-आप द्वारा निरूपित अधिकरण का सम्बन्धी होना ( स्वनिरूपिताधिकरणसम्बन्धित्वम् ) है तब तो अन्योन्याश्रय-दोष होगा। यह दोष वहाँ होता है जहाँ एक के ज्ञान या सत्ता के अधीन दूसरे का ज्ञान या सत्ता हो तथा दूसरे के ज्ञान या सत्ता के अधीन पहले का भी ज्ञान या सत्ता हो। प्रकृत स्थल में यही बात होती है कि अधिकरणत्व के ज्ञान के अधीन आधेयत्व का ज्ञान है और आधेयत्व के ज्ञान के अधीन वह अधिकरणत्व-ज्ञान भी है। इस निर्वचन के अतिरिक्त कुछ दूसरा अर्थ नहीं सूझता कि इस दोष से रक्षा हो । यह दोष पूर्वोक्त दोष का प्रायः रूपान्तर है, इसीलिए गदाधर ने इसका संकेत भी नहीं किया है । आधार और आधेय सापेक्ष शब्द हैं। जिस प्रकार पिता-पुत्रादि अन्य लौकिक शब्दों का क्रमिक ज्ञान होता है, उसी प्रकार इनका भी क्रमिक ज्ञान होता है। किसी वस्तु में एक कोटि ( आधार या आधेय ) की स्थिति जान लेने पर सापेक्ष होने के कारण वह दूसरे सम्बद्ध पदार्थ की आकांक्षा करता है, जिसकी उपस्थिति शीघ्र होती है। ( ख ) कुछ लोगों ने कहा है कि उत्पत्ति, स्थिति या ज्ञप्ति ( ज्ञान ) के लिए किसी वस्तु का अपेक्षणीय होना अधिकरणत्व है। आधेय की उत्पत्ति के लिए अपेक्षणीय पदार्थ का उदाहरण किसी भी कार्य का समवायिकारण हो सकता है । तदनुसार समवायिकारण अधिकरण है तथा उसका कार्य आधेय है, जैसे-तन्तुषु पट: समवेतः । इसी प्रकार घटादि पदार्थों की स्थिति के भूतलादि पदार्थ अपेक्षणीय होते हैं । भूतल ( आधार ) पर घट ( आधेय ) की स्थिति है । जात्यादि पदार्थों की ज्ञप्ति के लिए जो उसके समवायि ( समवाय-सम्बन्ध से स्थित व्यक्त्यादि ) पदार्थों की अपेक्षणीयता होती है, वहीं अधिकरण होते हैं । पुनः अभाव तथा समवाय पदार्थों के ज्ञान के लिए भी स्वरूप-सम्बन्ध से युक्त पदार्थ की अपेक्षा होती है जो अधिकरण कहलाता है। ___ भवानन्द इस पक्ष में दोष दिखलाते हैं कि अपेक्षणीय होने का अर्थ किसी का उत्पादक होना नहीं है ( अपेक्षणीयत्वं हि न जनकत्वम् ) क्योंकि यदि उत्पादक पदार्थ को ही अपेक्षणीय मान लें तो अतीन्द्रिय जाति, समवाय तथा अभाव के अधिकरणों में अव्याप्ति होगी। चूंकि इनका लौकिक प्रत्यक्ष नहीं होता, अतः सन्निकर्ष से सम्बन्ध १. 'एकसम्बन्धिज्ञानमपरसम्बन्धिस्मारकम्' ( न्या० सि० मु० में कारिका ८१ के अन्तर्गत )।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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