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________________ अधिकरण-कारक २९७ होती है जिसकी पूर्ति ग्राम करता है। अपेक्षित होने पर भी ग्राम का आधाररूप में चूंकि उपवास-क्रिया से सम्बन्ध नहीं है ( क्योंकि उस क्रिया का आधार कालशक्ति है ), अतः 'उपान्वध्यावसः' ( पा० १।४।४८ ) से होने वाली कर्मसंज्ञा उसमें प्रसक्त नहीं होती-प्रत्युत कालवाचक 'त्रिरात्र' में कर्मसंज्ञा हुई है। इसी का उपपादन वाक्यपदीय की इस कारिका में है'यद्यप्युपवसिर्देशविशेषमनुरुध्यते । शब्दप्रवृत्तिधर्मात्तु कालमेवावलम्बते' ॥ ___--वा० प० ३।७।१५४ ___'तीर्थे उपवसति' इत्यादि उदाहरणों में उपवास-क्रिया का सम्बन्ध तीर्थादि देशविशेष से यद्यपि देखा जाता है तथापि वह देशसम्बन्ध शब्दशक्ति ( उपवास-क्रिया की सामर्थ्य ) से प्राप्त नहीं होता। उपवास का अर्थ है-भोजन-निवृत्ति, जिसकी उपपत्ति काल-सम्बन्ध से ही होती है। दूसरे शब्दों में--भोजन-निवृत्ति कब या कब तक होती है, यही सार्थक प्रश्न है; कहाँ होती है, यह नहीं । उक्त क्रिया में कालशक्ति अन्तहित रहती है, आकाशशक्ति ( देशविशेष ) तो उपवासकर्ता की सत्ता की निराधारता की असिद्धि पर आश्रित होने के कारण, सम्बद्ध होने पर भी शब्दार्थ ( उपवास-क्रिया के अर्थ ) में अन्तर्भूत नहीं है। भोजननिवृत्ति से देश का सीधा सम्बन्ध नहीं रहता। उपवास के अर्थ में जो अवस्थिति या निवास करने का भी अर्थ अङ्गरूप में रहता है उसी से देश सम्बद्ध है । इस प्रकार जहाँ देश का उपवास के साथ सम्बन्ध उसके अङ्ग के माध्यम से होता है, काल का उससे साक्षात् ही योग होता है। ___ अनशनार्थक उपवास-क्रिया के योग में इस प्रकार देश और काल के आधारत्व का स्पष्ट विभाजन है । किसी भी स्थिति में देशवाचक शब्द को अधिकरण की विभक्ति होती है, कालवाचक को कर्म की। तदनुसार यह वार्तिक भाष्यकार तथा भर्तहरि के मतानुसार निरर्थक है। भर्तृहरि तो यहां तक कहते हैं कि उनके द्वारा खींची गयी विभाजक रेखा इतनी नियमबद्ध है कि जहाँ केवल उपवास-क्रिया का प्रयोग हो वहीं वास-क्रिया के अप्रयुक्त ( गम्यमान ) होने पर भी देश-विशेष (ग्रामादि ) उसी का अधिकरण होता है । पुनः त्रिरात्रादि कालवाचक शब्द अप्रयुक्त होने पर भी उपवासक्रिया के लिए कर्म होंगे। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि भोजन-निवृत्ति के अर्थ में उपवास-क्रिया का साक्षात् आधार काल होता है, जिसे कर्मसंज्ञा दी जाती है। देश अभिमत होने पर भी अङ्गभूत वास-क्रिया के माध्यम से उसका आधार बनता है, उसे अधिकरण ही कहते १. 'तथा चाङ्गभूतवसतिक्रियाद्वारेणोपवासेऽधिकरणतां देशः प्रतिपद्यते । साक्षाकालेन तु तथा योगः' । -हेलाराज ३, पृ० ३५३ २. 'साधनं ह्यश्रूयमाणामपि योग्यां क्रियामाक्षिपति'। ३. 'वसतावप्रयुक्तेऽपि देशोऽधिकरणं ततः । अप्रयुक्तं त्रिरात्रादि कर्म चोपवसौ स्मृतम्' ।। -वा० प० ३७।१५५ -वहीं
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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