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________________ २९४ संस्कृत व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन रहने से सांकर्य का दोष उपस्थित होगा । एक देशभाग ( आधार ) में एक ही वस्तु रह सकती है। किन्तु तथ्य यह है कि व्यापक आकाश के अन्तर्गत विभिन्न पदार्थ अपना-अपना देश-विशेष घेरकर रखे रहते हैं । यह देश-विशेष प्रत्येक पदार्थ का पृथक्पृथक् होता है । अतः आकाश-आधार में ही सभी पदार्थ परस्पर सत्तागत विरोध के बिना ही प्रेमपूर्वक सहयोग-सहित निवास करते हैं । आकाश में यह देशभेद कल्पनामात्र है; केवल व्यवहार के लिए है, परमार्थतः नहीं। उक्त प्रथमाधार के रूप में निरूपित आकाश की सत्ता भी आधारशक्ति पर आश्रित है । समस्त भाव पदार्थों के विषय में जो कहा जाता है कि यह यहाँ है ( इदमत्र ), वह व्यवहार ही सिद्ध करता है कि 'अत्रं' के द्वारा किसी ऐसे भाव-पदार्थ का निर्देश हो रहा है जो पृथ्वी आदि से भिन्न है। सामान्य वस्तुओं से वस्तुतः पृथ्वी का भाग परिमित नहीं होता, पृथ्वी से ऊपर का शून्य स्थान ही व्याप्त होता है । अन्ततः पृथ्वी भी उसी शून्यस्थान को घेरती है। फलतः उस शून्यस्थान रूप भावपदार्थ को 'आकाश' कह कर व्यवहार में लाते हैं । इसे हम अपदार्थ या अवस्तु नहीं कह सकते हैं, क्योंकि अवस्तु में किसी प्रकार की शक्ति नहीं होती और उसका नामकरण भी इस रूप में नहीं होता। साधारण व्यवस्था यह है कि किसी वस्तु का व्यपदेश ( नामकरण ) उसे निरूपित करने के बाद ही होता है और यह वस्तु पर आश्रित होता है, अवस्तु पर नहीं। कारण यह है कि लोक में जो शब्दजन्य व्यवहार चलता है उसमें उसी को 'वस्तु' कहने का नियम है जिसका निरूपण हो चुका है । ___ भर्तृहरि तथा हेलाराज दोनों इस विषय को महत्त्व प्रदान करते हैं कि अभाव पदार्थ में अधिकरणत्व नहीं हो सकता। यहाँ हम स्पष्ट हो लें कि अधिकरण में आधेय के अभाव का प्रश्न बिलकुल पृथक् है, जिसमें अधिकरणत्व की क्षति नहीं होती ( यथा-घटे जलं नास्ति )। किन्तु 'शत्रोरभावे सुखम्' इस उदाहरण में अभाव निरूप्यमाण होने पर भी वस्तु-सापेक्ष नहीं होने से आधार नहीं माना जा सकता। यद्यपि अभाव में सप्तमी-विभक्ति के विषय में हेलाराज मौन हैं, तथापि सम्भवतः वे इसे 'भावे सप्तमी' से समर्थनीय मानते हों । अतः सिद्ध होता है कि लोक में प्रसिद्ध व्यवहार का कारण रूप आकाश आधार ही नहीं, परमांधार है । सभी भावपदार्थों का आधार-रूप आकाश केवल सिद्ध वस्तुओं के आधार के रूप में प्रसिद्ध है; जैसे घट, पटादि का । जहाँ तक 'गच्छति, पचति' इत्यादि साध्य क्रियाओं १. द्रष्टव्य-हेलाराज ( उक्त कारिका पर ), पृ० ३५० । २. 'इहाधारशक्तिरेवान्यथानुपपत्तेराकाशसद्भावं गमयति' । -हेलाराज ३, पृ० ३५१ ३. 'निरूप्य हि व्यपदेशो, निरूपणा च वस्तुनिबन्धना, शाब्दे व्यवहारे निरूपितस्यैव वस्तुत्वात्। -वहीं ४. 'इदमत्रेति भावानामभावान्न प्रकल्पते । व्यपदेशस्तमाकाशनिमित्तं सम्प्रचक्षते' ॥ -वा०प० ३७।१५२
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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