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________________ अधिकरण-कारक 'अधि' का प्राचीन अर्थ अधि-पूर्वक कृ-धातु से अधिकरणार्थक ल्युट्-प्रत्यय लगकर बने हुए अधिकरणशब्द का निर्वचन है- 'अधिक्रियन्ते ( क्रियाः ) यस्मिन्' अर्थात् जिसमें क्रिया का निवास या आश्रय हो । इस शब्द में लगने वाला 'अधि' निपात के रूप में वैदिक काल से ही सप्तमी-विभक्ति पर नियमन करता आ रहा है। यथा--'वयो न सीदन्नधि बहिषि प्रिये' (ऋ० १९८५।७ घ), 'प्रतीदं विश्वं रोचते यत्किञ्च पृथिव्यामधि' ( ऋ० ५।८३।९ गद्य ), 'यत्सुवाचो वदथनाध्यप्सु' (ऋ० ७।१०३।५ घ) । यद्यपि इस 'अघि' के योग में कहीं-कहीं पंचमी भी देखी जाती है किन्तु वह इसका गौण प्रयोग है तथा ऐसे अवसर अत्यल्प हैं। । सप्तमी के प्रयोगाधिक्य के कारण ही 'अधि' का उपयोग सप्तमी-विभक्ति के अर्थ में होने वाले अव्ययीभाव समास में भी होता है; जैसेअधिहरि, अधिकन्धरम् ( शिशु० ११५४ ) । पाणिनि 'अधि' को ईश्वर ( स्वामी ) के अर्थ में कर्मप्रवचनीय मानते हैं ( 'अधिरीश्वरे' पा० सू० १।४।९४ ) तथा ऐसे कर्मप्रवचनीय के योग में उस शब्द से सप्तमी का भी विधान करते हैं जिससे आधिक्य दिखाना या जिसमें स्वामित्व प्रदर्शित करना इष्ट हो ( 'यस्मादधिकं यस्य चेश्वरवचनं तत्र सप्तमी' २।३।९); जैसे-'अधि ब्रह्मदत्ते पञ्चालाः, अधि पञ्चालेषु ब्रह्मदत्तः । 'यस्य चेश्वरवचनम्' में ईश्वर शब्द भावप्रधान ( ईश्वरत्व-वाचक ) है, अतः स्वामी तथा अधिकृत पदार्थ दोनों में सप्तमी का विकल्प होता है। अधि के इस अर्थप्रयोग-विवेचन के सन्दर्भ में अधिकरण-संज्ञा की सार्थकता प्रतीत होती है। आधिक्यवाचक 'अधि' के साथ करण का संयोग भी कम रोचक नहीं है। तदनुसार करण की अपेक्षा अधिक व्याप्ति वाले कारक को अधिकरण-संज्ञा मिलती है । हम देख चुके हैं कि करण के लक्षण में प्रकर्षवाचक तमप् प्रत्यय के योग से उसकी व्याप्ति क्षीण हो गयी है । अधिकरण के साथ ऐसी बात नहीं। तमप नहीं होने से सभी प्रकार के आधारों को अधिकरण कहते हैं, न कि करण के समान केवल कुछ साधकों को । अतएव गौण आधार भी अधिकरण होते हैं, यह हम देखेंगे। इसलिए करण की अपेक्षा अधिक व्यापक होने के कारण इसे अधिकरण कहा गया हो, यह सम्भव लगता है। इसलिए पाणिनि ने इसे करण का अव्यवहित परवर्ती बनाया है। १. Macdonell, Vedic Grammar for Students, Art. 176.2. २. “यस्य चेश्वरवचनम्' इ. गर्थद्वयम् । ईश्वरशब्दो भावप्रधानः । यस्य स्वामिन ईश्वरत्वमुच्यते तस्मात्स्वामिनः सप्तमीत्येकः, यस्य स्वस्येश्वर उच्यते तस्मात्स्वात्सप्तमीत्यपरः"। पदमञ्जरी, १४९४
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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