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________________ २६८ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन उपाधि के भेद से भिन्न कारकों में व्यवस्थित है । यही कारण है कि 'देवदत्तयज्ञदत्तावन्योन्यमाश्लिष्यतः' में अन्योन्य- शब्द में कर्मत्व की सिद्धि होती है ( लघुमञ्जूषा, पृ० १२८७ ) । । सर्वप्रथम वे हरि-मत रूप में विभाग की सत्ता दूसरे मेष- व्यक्ति नागेश इस विषय में भर्तृहरि के मत का खण्डन करते हैं का इस रूप में उल्लेख करते हैं - एक - एक ( मेष ) व्यक्ति के बुद्धिगत व्यवस्था करके एक-एक विभाग के अनुकूल क्रिया की में नहीं पाये जाने के कारण दोनों को ध्रुव कहा जा सकता है । आशय यह है कि हरि ऐसी स्थिति में दो क्रियाओं की सत्ता मानते हैं । नागेश बतलाते हैं कि यद्यपि मेषों में समवेत क्रियाओं में भेद है, तथापि सृ-धातु के द्वारा यही गृहीत हो रहा है कि दोनों क्रियाओं में भेद की निवृत्ति हो चुकी है । इसलिए दोनों मेषों को अपसरणक्रिया का आश्रय होने के कारण परिवर्तिनी कर्तृसंज्ञा ही दी जा सकती है, अपादानसंज्ञा नहीं । सृ धातु से बोध्य क्रिया एकात्मक है, दो के रूप में प्रतीत होनेवाला पदार्थ वास्तव में क्रिया का आश्रय ( मेष ) है । यह तस् - विभक्ति के द्वारा बोध्य है । पतञ्जलि ने इसीलिए कहा है कि तिङन्त रूपों का एकशेष नहीं हो सकता, क्योंकि क्रिया एक रूप ही होती है । जिस प्रकार 'बालकश्च बालकश्च बालकौ' में एकशेष होता है, उसी प्रकार 'अपसरति चापसरति चापसरत: ' नहीं हो सकता । अतः भर्तृहरि का यह कथन कि 'एक की क्रिया की अपेक्षा से दूसरे मेष को ध्रुव या अवधि कहें' असंगत है । वास्तव में दोनों की क्रियाएँ तो एकरूप हो गयी हैं । भर्तृहरि के अनुयायी भूषणकार के मत का भी खण्डन प्रधानमल्ल - निबर्हण न्याय से हो जाता है । एक मेष में समवेत है, उस इस प्रकार 'परस्परस्मान्मेषावपसरतः' की व्याख्या के दो भाग हैं - ( १ ) प्रत्येक कर्ता में एकरूप क्रिया बारी-बारी से समवेत होती है । यह सही है कि क्रिया एक ही है किन्तु वह जिस समय समय उसी मेष की क्रिया से विभाग उत्पन्न होता है । भर्तृहरि दोनों मेषों की दो क्रियाओं की युगपत् सत्ता मानते हैं - यही भेद है । ( २ ) इसके अतिरिक्त मेष और परस्पर शब्दों के अर्थ में औपाधिक भेद है, यद्यपि दोनों का पर्यवसान मेष-रूप अर्थ में ही होता है । इसी से एक कर्ता और दूसरा अपादान है। यह आशंका की जा सकती है कि इस औपाधिक भेद को ही लेकर अपादान की सिद्धि कर दी जाय, व्यर्थ 'तत्तत्कर्तृसमवेत' यह अंश क्यों लगाया गया है ? किन्तु हम पूर्व अंश का सर्वथा त्याग नहीं कर सकते, क्योंकि १. 'शब्दस्वरूपोपाधिकृतभेदोऽप्यर्थे गृह्यते' । २. ' तत्तद्व्यक्तित्वेन विभागस्य बुद्धया तत्तद्विभागानुकूलक्रियावत्त्वस्य अपरत्राभावादुभयोरपि ध्रुवत्वमित्यर्थः ' । ३. 'वस्तुतस्तन्निष्ठयोर्भेदेऽपि सृधातुना निवृत्तभेदस्यैवोपादानादुभयोरपि तत्क्रियाश्रयत्वेन परत्वात्कर्तृत्वापत्तेः' । - प० ल० म०, पृ० १८४ - ल० म०, पृ० १२८७ - वही, पृ० १२८८ ४. भाष्य ( १।२।६४ सरूपाणाम् ० ) - ' न वै तिङतान्येकशेषारम्भं प्रयोजयन्ति, क्रियाया एकत्वात्' ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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