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________________ अपादान-कारक २६३ में उसे अपादान-संज्ञा नहीं होगी। कारण यह है कि ध्रुव होने पर भी अवधि ( जहाँ से विश्लेष का आरम्भ हो ) के रूप में देवदत्त का ग्रहण नहीं हुआ है। यदि उस रूप में ग्रहण करें तो 'सरतो देवदत्ताद् धावत्यश्वः' इस प्रकार अपादान की प्राप्ति अवश्य होगी। यह अवधि ही ध्रुव को लोक-प्रयुक्त अर्थ से हटाकर शास्त्रीय अर्थ में व्यवस्थित करती है । तदनुसार यह विभाग की सीमा और अपाय से अनाविष्ट पदार्थ के रूप में ध्रुव को नियत करती है । अवधि का महत्त्व इतना अधिक है कि इसके अभाव में किसी भी गति को अपाय कह ही नहीं सकते । स्पष्टतः अपाय भी सावधि गति मात्र के लिए प्रयुक्त होने से पारिभाषिक शब्द सिद्ध होता है । 'वृक्षस्य पर्ण पतति' इस वाक्य में वृक्ष से सम्बद्ध पर्ण का पतन विवक्षित है। वक्ता वृक्ष को अवधि के रूप में रखना नहीं चाहता, अतः इसमें पतन-क्रिया होने पर भी अवधि की अविवक्षा से अपाय की प्रतीति नहीं होती। इसलिए अपादान-मूलक पञ्चमी भी नहीं है । अपाय की विवक्षा होने से वृक्ष अवधि हो जायगा और तभी 'वृक्षात्पर्णं पतति' का प्रयोग हो सकेगा। ऐसी स्थिति में यह ज्ञात नहीं होता कि पर्ण किससे सम्बद्ध है-कंक से था कुरर से ? षष्ठीवाले उदाहरण में वृक्ष की विवक्षा पर्ण के विशेषण के रूप में हुई है- वृक्षसम्बद्ध पर्ण। इसका अर्थ है कि यह प्रयोग तभी होता है जब शाखा पर स्थित पर्ण वृक्ष का त्याग किये बिना भूमि का स्पर्श करता है। अतः अवधिहीन गति अपाय नहीं होती, अन्यथा उक्त वाक्य में अपादान-संज्ञा हो सकती थी। ध्रुव के पर्याय के रूप में प्रयुक्त हुए 'उदासीन' शब्द की व्याख्या करते हुए पुरुषोत्तमदेव कुछ अधिक स्पष्ट प्रतीत होते हैं। वे कहते हैं कि अपाय के विषय में जो अविचलता है अर्थात् गमन-क्रिया के प्रति अगमन, पतन-क्रिया के प्रति अपतन, वही ध्रुव है। 'धावतोऽश्वात्पतति देवदत्तः' में देवदत्त के गिरने पर अश्व तो नहीं गिरता । यदि वह भी गिरता तो 'अश्वदेवदत्तो पततः' यह प्रयोग होता । पतन-क्रिया में अनुप्रवेश न होने से अश्व की उदासीनता ध्रुवत्व है। __ अब एक शंका होती है कि यदि यह ध्रुव क्रिया के प्रति उदासीन है तो कारक नहीं हो सकता, क्योंकि कारक घटना-रूप होता है और उदासीन घटित नहीं होता। उसके घटित होने पर उदासीनता पर ही आक्षेप होगा। इसका उत्तर पुरुषोत्तम देते १. 'गतिविना त्ववधिना नापाय इति कथ्यते । वृक्षस्य पर्ण पततीत्येवं भाष्ये निदर्शितम् ॥ -वा०प० ३।७।१४३ २. उक्त कारिका पर हेलाराज - 'एतस्माच्चावसीयते-सावधिकगतिरपायो, न शुद्धा। अन्यथावध्यविवक्षायामप्यत्रापायसम्भवादपादानत्वं स्यादेवेति ज्ञापकमेतत्' । ३. 'ध्रुवं न कारकं मन्ये नोपकारि गतौ यतः । अपायाधारभूतोऽसौ स क्रियश्च न कथ्यते' ॥-पुरु० कारकचक्र, पृ०१११
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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