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________________ कारक-विषयक भारतीय चिन्तन का इतिहास व्याख्या करती है ( १४५९-१५५३ ) । यहाँ कुल ९५ वार्तिक हैं, जिनमें अनेक वार्तिक वास्तव में सूत्र में अनिर्दिष्ट अपूर्व विषय का विधान करते हैं। इन्हें परवर्ती पाणिनीयों ने अपने-अपने ग्रन्थों में समाविष्ट किया है। विषयवस्तु की दृष्टि से कात्यायन के वार्तिक दो प्रकार के है-न्यूनतापूरक ( उपसंख्यान ) वार्तिक तथा शंका-समा. धानात्मक वार्तिक । भाष्यकार ने दोनों की सम्यक समीक्षा की है, विशेषतः द्वितीय प्रकार के वार्तिकों के आधार पर उन्होंने अपने विवेचनों को उठाया है। शैली की दृष्टि से अधिकांश वार्तिक सूत्रात्मक हैं, किन्तु श्लोकात्मक वार्तिक भी हैं; जैसे 'कथितेऽभिहिते त्वविधिस्त्वमतिगुणकर्मणि लादिविधिः सपरे । ध्रुवचेष्टितयुक्तिषु चाप्यगुणे तदनप्यमतेर्वचनं स्मरत' ॥ (पा० १।४।५१ पर ) वार्तिक कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है, किसी-न-किसी सूत्र से इनका सम्बन्ध है। आज वार्तिकों के ज्ञान का एकमात्र साधन पातञ्जल महाभाष्य है । यह पतञ्जलि पर ही निर्भर है कि उन्होंने सभी वार्तिकों का विवेचन किया है या कुछ छोड़ भी दिये हैं। पतञ्जलि शंगवंशीय राजा पुष्यमित्र ( १५० ई० पू० ) को यज्ञ कराने वाले महावैयाकरण पतञ्जलि कात्यायन के अनन्तर सूत्र-वार्तिक के संयुक्त भाष्यकार के रूप में पाणिनि-तन्त्राकाश में सूर्य के समान प्रकट हुए । संस्कृत वाङ्मय में विद्यमान अन्य भाष्यों की श्रृंखला में अपने कतिपय विशिष्ट गुणों के कारण पातञ्जलभाष्य महाभाष्य कहा गया। महाभाष्य में पाणिनि के प्रमुख सूत्रों की तथा उन पर वर्तमान वार्तिकों की विशद व्याख्या तो है ही, अन्यान्य दार्शनिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक सूचनाएँ देने के कारण भी इसका महत्त्व बढ़ गया है। भर्तृहरि ने सभी न्यायबीजों ( विद्या के स्रोतों ) का आकर-ग्रन्थ इसे माना है। वस्तुस्थिति यह है कि पतञ्जलि ने पाणिनि-सूत्रों की व्याख्या के व्याज से अपने समस्त पूर्ववर्ती वैयाकरणों के प्रमुख विचारों को भाष्य में निविष्ट किया है, जिन्हें सुगम बनाने के लिए रोचक आख्यान भी दिये हैं । इसी से यह एक आकर-ग्रन्थ बन गया है । इतनी विषय-बहुलता होने पर भी भाष्य की शैली अत्यन्त ही परिमार्जित एवं सरल है। विधेय शिष्यों के समक्ष गुरु १. पतञ्जलि के काल की सूचना देनेवाले अन्तरङ्ग प्रमाण-वाक्य निम्न हैं'अनुशोणं पाटलिपुत्रम् ( २।१।१५ ), मोहिरण्याथिभिरर्चाः प्रकल्पिताः (५।३।९९), अरुणद् यवनः साकेतम् -अरुणद् यवनो माध्यमिकाम् ( ३।२।१११), पुष्यमित्रसभा चन्द्रगुप्तसभा ( १।१।६८), पुष्यमित्रो यजते-याजका याजयन्ति ( ३।१।२६ ), इह पुष्यमित्रं याजयामः' ( ३।२।१२३)। २. 'कृतेऽथ पतञ्जलिना गुरुणा तीर्थदर्शिना। सर्वेषां न्यायबीजानां महाभाष्ये निबन्धने' ॥ वा०प० २।४७९
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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