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________________ २४६ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन या विक्रीत तिल, तुरग आदि स्वीकार करने में कोई दोष नहीं, क्योंकि वह भी प्रतिग्रह है। ___ संसृष्टि के स्थल में, जहाँ कई परिवार एक साथ अपने स्वत्व का सामूहिक प्रतिग्रह करते हों, असाधारण ( individual ) स्वत्व के नाश के बाद साधारण ( collective ) स्वत्व की उत्पत्ति होने पर भी 'ददाति' का प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसलिए 'परमात्र में स्वत्व की उत्पत्ति के अनुकूल त्याग' को धात्वर्थ कहा गया है। फिर भी आशंका हो सकती है कि स्वत्व का नाश तो इस विधि से व्यवस्थित नहीं हो सकता, अतः परमात्र में स्वत्वोत्पत्ति इत्यादि कहने की आवश्यकता नहीं । केवल इतना ही कहें कि अपने स्वत्व की निवृत्ति के बाद परस्वत्व की आपत्ति के अनुकूल त्याग ही धात्वर्थ है, 'मात्र' शब्द देने की कोई आवश्यकता नहीं। उत्तर में कह सकते हैं कि पूर्वस्वत्व के नाश की व्यवस्था इस प्रकार हो सकती है कि स्वत्व से युक्त पदार्थ या व्यक्ति में स्वत्व की उत्पत्ति नहीं हो रही है, यही स्वत्वनाश है। निष्कर्ष यह निकलता है कि जब सभी भाई अपने-अपने स्वत्व को पुनः एक ही में विलीन करके मिल जायें तब स्वत्व की आपत्ति नहीं होती-अपना स्वत्व सामुदायिक स्वत्व के रूप में बदल जाता है । सभी का उस पर अधिकार रहता है। अतएव इस स्थल में 'ददाति' क्रिया नहीं प्रयुक्त होती कि प्रत्येक व्यक्ति अपना स्वत्व देता है । 'परमात्र' की यहीं सार्थकता है। ____ अब हम उपेक्षा ( उदासीनता ) का उदाहरण लें। कोई व्यक्ति अपने उद्देश्य से दिये गये दान को उपेक्षित करे तो यहाँ नियमतः परस्वत्व का आपादान नहीं होता । इसलिए 'ददाति' के प्रयोग से उपेक्षा का स्थल भी वंचित रहता है । परस्वत्व का आपादन नियमपूर्वक ( as a rule ) होना चाहिए, कभी-कभी नहीं। विक्रय के स्थल में भी दान-क्रिया की सार्थकता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि वस्तु-विक्रय परस्वत्व का नियमपूर्वक आपादन नहीं करता । विक्रय तो परस्वत्वापादन का हेतु है ही नहीं । यह ( परस्वत्वापादन ) वस्तुतः उस क्रय से होता है जो मूल्यदान के अनन्तर स्वीकार के रूप में रहता है। विक्रय में स्वत्व-निवृत्ति होती है तो क्रय में परस्वत्वापादन । अतएव विक्रयस्थल में 'ददाति' का प्रयोग नहीं होता। यदि होता है ( वणिक ग्राहकाय वस्त्रं ददाति ) तो भाक्त प्रयोग से निर्वाह कर सकते हैं। स्वत्वविचार नागेश स्वत्व-पदार्थ का दार्शनिक विवेचन भी करते हैं, जिसका उपयोग जयराम के कारकवाद में भी हुआ है । नव्य नैयायिकों से सहमति रखते हुए नागेश स्वत्व को अतिरिक्त पदार्थ के रूप में स्वीकार करते हैं। यह दान-क्रिया से नष्ट तथा प्रति १. विभक्त किये हुए धन को पुनः एकत्र करना । तुलनीय-याज्ञः स्मृ० २।१४३ तथा उसकी मिताक्षरा। २. द्रष्टव्य-ल० म० कला, पृ० १२६४ तथा कारकवाद, पृ० २६-२७ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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