SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३६ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन बाधा हो सकती है जब दूसरे पक्ष ( सूर्य, देवतादि ) से निराकरण या अस्वीकार हो । तथापि अनिराकर्तृ सम्प्रदान स्वरूपतः अव्याख्येय होने से नैयायिकों के निमित्तकारण के समान' परिशेष-विधि से समझा जा सकता है । यही कारण है कि अन्य सम्प्रदानों के विषय में मितभाषी ( उदाहरण से ही संतुष्ट ) रहने पर भी अनिराकर्त सम्प्रदान का उदाहरण देकर परिशेष-विधि की सम्पूर्ण औपचारिकताओं का निर्वाह करने में परवर्ती आचार्य पीछे नहीं रहते । सम्प्रदान में दान-क्रिया का महत्त्व एक दूसरे प्रसंग में भी सिद्ध हो सकता है। हेलाराज यह पूर्वपक्ष उठाते हैं कि जब दानक्रिया सम्प्रदान की सिद्धि के लिए प्रस्तुत की जाती है तब 'तादर्थ्य चतुर्थी' (पा० २।३।१३ का वार्तिक ) से ही काम क्यों नहीं लिया जाय ? व्यर्थ सम्प्रदान-संज्ञा की कल्पना करके विस्तार क्यों किया जाय ? तादर्थ्य से भले ही शास्त्रतः प्रकृति-विकृति-भाव अथवा कार्य-कारण-भाव प्रतीत होता हो,२ किन्तु उसके सामान्य अर्थ को लेकर ऐसी शंका की जा सकती है। जो गाय उपाध्याय को दी जाती है वह उपाध्याय के लिए ही होती है-अतः तादर्थ्य में इसका अन्तर्भाव सम्भव है । किन्तु यह शंका यथार्थ नहीं है, क्योंकि दानक्रिया और सम्प्रदान में तादर्थ्यसम्बन्ध विपरीत दिशा में है । दान क्रिया की निष्पत्ति के लिए सम्प्रदान है, उस क्रिया में साधनरूप होने से ही यह कारक है। ऐसी बात नहीं कि दानक्रिया सम्प्रदान के उद्देश्य से प्रवृत्त होती है । सम्प्रदान के लिए तो वस्तुतः दिया गया कर्म ही विद्यमान रहता है । इस प्रकार वाक्यार्थ के रूप में प्रयुक्त दानक्रिया और तादर्थ्य में भेद है, एकरूपता नहीं । समानता तभी सम्भव थी जब दानक्रिया सम्प्रदान के लिए होती जो असंगत है। यद्यपि पतंजलि भी तादर्थ्य से सम्प्रदान की रक्षा करते हैं किन्तु उनकी युक्ति प्रधान सम्प्रदान से सम्बद्ध नहीं है । वे रुचि-आदि के अर्थ में होनेवाली सम्प्रदान-संज्ञा की रक्षा के लिए उसमें तथा तादर्थ्य में भेद करते हैं। किन्तु सम्प्रदान-संज्ञा का विधान एक दूसरे कारण से भी आवश्यक है । 'दाशगोनो सम्प्रदाने' (पा० ३।४।७३ ) सूत्र में उक्त संज्ञा-शब्द का ग्रहण किया गया है जो प्रधान सम्प्रदान से ही सम्बद्ध है। 'दाशन्ति तस्मै इति दाशः, आगताय तस्मै दातुं गां घ्नन्ति इति १. 'निमित्तकारणं तदुच्यते यन्न समवायिकारणं नाप्यसमवायिकारणम् । अथ च कारणम्'। -तर्कभाषा, पृ० ३९ २. 'तदर्थस्य भावस्तादर्थ्यमिति कार्यकारणसम्बन्ध उच्चते, समासकृत्तद्धितेषु भावप्रत्ययेन सम्बन्धाभिधानमिति वचनात्' । - कैयट २, पृ० ४९७ ३. 'यो ह्यपाध्यायाय गोर्दीयते, उपाध्यायार्थः स भवति । तत्र तादर्थ्य इत्येव सिद्धम्। --भाष्य २, पृ० ४९८ ४. तुलनीय-( हेलाराज ३, पृ० ३३२) 'दानक्रियार्थं हि सम्प्रदानम्, न तु दानक्रिया तदर्था, कारकाणां क्रियार्थत्वात्।। ५. 'अवश्यं सम्प्रदानग्रहणं कर्तव्यम् । यान्येन लक्षणेन सम्प्रदानसंज्ञा तदर्थम् - छात्राय रुचितम् । छात्राय स्वदितमिति'। -भाष्य २, पृ० ४९८
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy