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________________ करण-कारक २२३ 'मनो बुद्धिरहङ्कारश्चित्तं करणमान्तरम् । संशयो निश्चयो गर्वः स्मरणं विषया अमी' ॥ इन विषयों पर एक दष्टि डालने से ही इनकी त्रैकालिक वृत्ति का अनुमान हो सकता है । सांख्यों का उपर्युक्त भेद करणमात्र को व्याप्त नहीं करता, इसकी मर्यादा इन्द्रियों या विषयोपलब्धि के साधनों तक ही है । अतः हमें अन्य भेद करने होंगे। ( २ ) भरतमल्लिक अपने कारकोल्लास में करण के दो भेद करते हैं -बाह्य ( जो शरीर के अवयवों से भिन्न हो ) और आभ्यन्तर (जो शरीर में समवेत हो)।' पहले के उदाहरण में 'चक्रेण दैत्यांश्चिच्छेद समरे मधुसूदनः' दिया गया है, जिसमें चक्र बाह्य करण है। दूसरी ओर 'मनसा कृष्णपादाब्जं सेव्यते साधुना सदा' में मन आभ्यन्तर करण है। इस विभाजन में मुख्य असंगति है कि इसके अनुसार हस्त, पाद आदि भी शरीर से समवेत होने के कारण आभ्यन्तर करण हो जायेंगे और ऐसा कहना अप्रसिद्धि-दोष माना जायगा । यह विभाजन मन, बुद्धि तथा हस्तपादादि में कोई भेद नहीं मानता । आभ्यन्तर और बाह्य के रूप में करण का भेद करना ही हो तो दार्शनिक भेद ही मान्य होगा। हाँ, एक सुझाव हो सकता है कि पहले करण के शारीर और अशारीर ये दो भेद कर लें और तब शारीर करण के बाह्य तथा आभ्यन्तर भेद मानें। __ सांख्यों के अनुसार बाह्य तथा आभ्यन्तर करण मानकर बाह्य को पुनः दो भेदों में रखा जा सकता है-कर्तृशरीरसम्बन्ध तथा तद्भिन्न । 'उरसा गच्छति, नखेन छिनत्ति' इत्यादि में प्रथम कोटि तथा दात्रादि में द्वितीय कोटि का करण होगा। १. कारकोल्लास, श्लोक ५४ तथा आगे ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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