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________________ करण-कारक २११ मंत्र तुष-प्रक्षेप करके सम्पन्न कर रहा हो वहाँ 'चैत्रः तुषैः मैत्रः काष्ठः पचति'-जैसे प्रसंग होने की सम्भावना है । यहाँ एक साथ उच्चरित कर्तव्यापारों की अधीनता का आभासमात्र ( वास्तविक बोध नहीं ) उन-उन करणव्यापारों में होता है-यह मानते हुए उस प्रयोग को अप्रामाणिक सिद्ध किया जा सकता है । फलतः तुष( करण )निष्ठ व्यापार के चैत्र ( कर्ता ) के व्यापार के अधीन नहीं रहने के कारण 'चैत्रस्तुणैः ( पचति )' नहीं होगा और उसी प्रकार चूंकि काष्ठनिष्ठ व्यापार मैत्रव्यापार के अधीन नहीं, इसलिए 'मैत्रः काष्ठः पचति' भी नहीं होगा। जिस करण का व्यापार जिस कर्ता के व्यापार के अधीन है उसी के साथ उसका प्रामाण्य भी होगा--'चैत्रः काष्ठः, मैत्रस्तुषः' कहें तो कोई आपत्ति नहीं। यहाँ कर्ता और करण का साथ ही उल्लेख हुआ है । जहाँ इस रूप में कर्ता का समभिव्याहार नहीं होता वहाँ करण में केवल व्यापारयुक्त कारणता की प्रतीति होती है; जैसे -- शरैः शातितपत्रोऽयम्, दात्रेण लुनाति । किन्तु जहाँ कर्ता का भी समभिव्याहार हो रहा हो वहाँ कर्ता के व्यापार के अधीन व्यापारयुक्त कारण को ही करण होता है, यही विशेषता है । कारण तथा करण में भेद गदाधर एक विशेष तथ्य की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं कि करणत्व में काम देनेवाला कारण फल को उत्पन्न करने की योग्यता अवश्य रखे, अन्यथा काटने का काम ( छिदा-क्रिया ) तो कुठार से और दात्र (हँसुआ ) से भी सम्पन्न होता है, अतः एक की करणता में होनेवाली क्रियानिष्पत्ति के प्रति दूसरे को भी उसकी स्वरूपयोग्यता के आधार पर करण कह दिया जा सकता है। किन्तु हम जानते हैं कि कुठार के करण होने पर जो छिदाक्रिया निष्पन्न होती है, वह दात्र की करणता में नहीं होती। अतः पूर्ण क्रियानिष्पत्ति को ध्यान में रखकर ही व्यापारयुक्त कारण को करण कहना चाहिए । नैयायिकों ने कारण और करण का इस प्रकार समान्तर प्रयोग किया है कि कभीकभी दोनों के पार्थक्य की प्रतीति कठिनता से होती है। किन्तु वस्तुतः दोनों में स्पष्ट विभाग है । भ्रम का कारण यही है कि दोनों की स्थिति कार्य के अव्यवहित पूर्व में होती है । ऐसा होने पर भी अंशतः कार्य की प्रकृति तथा अंशतः व्यापार पर अवलम्बित रहकर करण और कारण का भेद किया जा सकता है। १. एक ही पाकक्रिया में-(१) चैत्रकर्तकत्व, ( २ ) तुषकरणकत्व, (३) मैत्रकर्तृकत्व तथा ( ४ ) काष्ठकरणकत्व-इन चारों की उपस्थिति होती है, इसीलिए उपर्युक्त व्यतिकर सम्भव है। २. 'कर्बसमभिव्याहारस्थले व्यापारवत्कारणत्वमात्रं प्रतीयते। कर्तसमभिव्याहारस्थले व्यापारे तव्यापाराधीनत्वमपीति सामञ्जस्यम्' । –व्यु० पृ० २२५ ३. 'कारणत्वं च फलोपधानरूपमेव करणताघटकम् । अन्यथा कुठारादिकरणकच्छिदादी दात्रादेरपि स्वरूपयोग्यतया करणत्वापत्तेः' । -वहीं
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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