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________________ करण-कारक २०३ हेलाराज इसी सन्दर्भ में पूर्वपक्ष उठाते हैं कि यदि उपर्युक्त प्रकार से कर्ता और करण को भिन्न बतलाते हैं तब 'करणं पराणि' वाले वार्तिक में करण के साथ अन्य कारकों का (कर्ता का भी ) विप्रतिषेध कैसे दिया गया है ? विप्रतिषेध तभी होता है जब दो भिन्नार्थक प्रसंग एक ही स्थान में युगपत् प्राप्त हों ( 'यत्र द्वौ प्रसङ्गावन्यार्थावेकस्मिन् युगपत् प्राप्नुतः स तुल्यबलविरोधो विप्रतिषेध : ' - काशिका १२४ २ ) | कर्ता और करण भिन्न होंगे तो एक स्थान पर दोनों प्राप्त नहीं हो सकते, अतः यह 'विप्रतिषेध'शास्त्र निरर्थक हो जायगा । वाक्यपदीय में इसका भी समाधान ढूंढा जा सकता है कि विवक्षा के द्वारा कर्ता और करण के रूप में काल्पनिक भेद मानने पर भी वास्तव में एक पदार्थ शक्ति के आधार के रूप में वर्तमान रहता है, वह अपने रूप से पृथक नहीं होता 'आत्मभेदेऽपि सत्येवमेकोऽर्थः स तथा स्थितः । तदाश्रयत्वाद् भेदेऽपि कर्तृत्वं बाधकं ततः ॥ - वा० प० ३।७।९७ यह सत्य है कि तैक्ष्य की आत्मा ( स्वरूप ) में ही कर्ता और करण का भेद कल्पित हुआ है, किन्तु इससे तात्त्विक भेद तो नहीं हो गया । वह पदार्थ वस्तुतः एकाकार ही है । ' तदाश्रय' शब्द में तत् के द्वारा कल्पना का परामर्श होता है अर्थात् केवल कल्पना पर आश्रित होने के कारण भेद होने पर भी वस्तु की एकरूपता यथापूर्व रहती ही है । कुछ लोग कहते हैं कि कर्ता और करण का आधार एक ही पदार्थ है - ' तदाश्रय' का यही अर्थ लेना चाहिए । फलतः शक्ति ( कारक - सामर्थ्य ) में भेद होने पर भी आधार द्रव्य के एकत्व ( identity ) के कारण दोनों संज्ञाओं की एक ही स्थान पर युगपत् उपस्थिति का प्रश्न उत्पन्न होता है और तभी यह विप्रतिषेध का विषय बनता है । जो संज्ञा दी जाती है वह शक्ति से विशिष्ट द्रव्य को ही ( 'संज्ञा हि शक्तिविशिष्टस्य द्रव्यस्यैव' – हेलाराज ) । तलवार एक ही है, वह कर्ता हो चाहे करण हो । किन्तु उसके व्यापार या शक्ति में तो भेद हो ही जाता है । कर्तृसंज्ञा द्वारा करणसंज्ञा का बाध इस प्रकार जब वस्तु में विद्यमान रहने वाली एकता पर विवक्षा चलती है तब विषय के एकत्व पर आरूढ होने वाला विप्रतिषेध-शास्त्र उपक्रान्त होता है तथा कर्तृसंज्ञा करणसंज्ञा को बाधित करती है; यथा - असिरिछनत्ति । यहाँ साधकतमत्व तथा स्वातंत्र्य की विवक्षाओं में व्याप्ति-सम्बन्ध है - - प्रथम विवक्षा के द्वारा दूसरी विवक्षा व्याप्त होती है । अत: 'असि' की स्वातंत्र्य - विवक्षा होने पर समान विषय में दोनों संज्ञाओं की प्रसक्ति होने से परत्व के कारण कर्तृसंज्ञा होती है - यही उस वार्तिक का तात्पर्य है । साधकतम होने से ही स्वातंत्र्य का आरोप हो सकता है । ( 'साधकतमत्वे हि सति स्वातन्त्र्यमारोप्यते' – हेलाराज ) । 'धनुषा विध्यति' में इसी प्रकार 'अपादानमुत्तराणि कारकाणि बाधन्ते' इस वार्तिक के द्वारा अपाय की सत्ता रहने पर ही धनुष
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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