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________________ १९७ नहीं कह सकते हैं । कर्म का भी बन्धन बहुत दूर तक शिथिल होता है, करण का बिलकुल नहीं। इसमें गौण और मुख्य के अधिकार पर प्रश्न छिड़ता है तो मुख्य का ही कार्य देखा जाता है, गौण का नहीं ( 'गौणमुख्ययोः मुख्य कार्यसम्प्रत्ययः' -परि० शेखर, १५ ) । अन्य कारकों में गौण और मुख्य दोनों का क्षेत्र समानरूप से रहता है। प्रकर्ष का अर्थ क्रिया की सिद्धि में अतिशय साधक या उपकारक होना-इस प्रकार करण का लक्षण निश्चित हुआ है। अब हमें देखना है कि साधकों में इस अतिशयता या प्रकर्ष का वास्तविक अर्थ क्या है ? क्रियासिद्धि में अनेक साधन आ-आकर कर्ता की सहायता करते हैं । इन्हें 'सन्निपत्योपकारी'' कहा जाता है। इन साधनों में सभी समान रूप से उपकार नहीं कर पाते-इनका पौर्वापर्य रहता है। जिस उपकारक पदार्थ के व्यापार के अनन्तर ही क्रिया की सिद्धि हो जाती है, थोड़ा भी विलम्ब नहीं होताउसी को साधकतम कहते हैं; वही करण है । अतः साधक के प्रकर्ष का अर्थ क्रियासिद्धि के अव्यवहित पूर्व में आना और अपने व्यापार के बाद तुरंत लक्ष्यावगाहन करना है । भर्तृहरि इस प्रकर्ष का निरूपण करणलक्षण के प्रसंग में इस प्रकार करते हैं "क्रियायाः परिनिष्पत्तिर्यव्यापारादनन्तरम् । विवक्ष्यते यदा तत्र करणत्वं तदा स्मृतम् ॥-वा०प० ३।७।९० जिस ( उपकारक ) के व्यापार के तुरंत बाद ही क्रिया की सम्यक् सिद्धि होने की विवक्षा की जाय, तब उसी ( उपकारक ) में करण-कारक होता है। उदाहरण के लिए छेदन-क्रिया की सिद्धि में दात्र ( हँसुआ ) छेद्य पदार्थ में घुस कर अवयव का विभाग सम्पन्न कर देता है और अधिकरणादि दूसरे कारकों की अपेक्षा प्रकृष्ट उपकारक कहलाता है । यहां दात्र का व्यापार है-अनुप्रवेश तथा क्रियासिद्धि का स्वरूप है-अवयवों का विभाजन । अनुप्रवेश के तुरंत ही बाद में अवयवविभाग हो जाता है, प्रत्युत दोनों के मध्य कालव्यवधान की प्रतीति भी नहीं होती। तभी हम कह पाते हैं-दात्रेण छिनत्ति । इसी प्रकार 'चक्षुषा पश्यति' में चक्षु को प्रणिहित करना करणव्यापार है, दर्शन क्रिया है, जो व्यापार का अव्यवहित अनुसरण करती है। यहाँ भी इस तथ्य पर ध्यान रखना चाहिए कि क्रियासिद्धि के जो साधन माने जाते हैं वे बुद्धि की अवस्था पर आश्रित हैं। उनकी बाह्य सत्ता का स्वरूप जो भी हो, उन्हें वक्ता की इच्छा के अनुसार रूप-ग्रहण करना है । अतएव उक्त उदाहरणों १. वा० ५० ३।७।९० पर हेलाराज द्वारा प्रयुक्त । २. तुलनीय, सर० कण्ठा० ( १।११५५ ) पर नारायणवृत्ति-क्रियासिद्धौ यत् प्रकृष्टोपकारकत्वेनाव्यवधानेन विवक्षितं तत्कारकं करणसंशं भवति' । ३. “साधनव्यवहारस्य च बुद्ध्यवस्थासमाश्रयत्वाद् 'विवक्ष्यते' इत्याह । विवक्षोपारूढ एव ह्यर्थो व्याकरणेऽङ्गम्, बाह्यवस्तुसत्तेत्यर्थः । -हेलाराज ( उक्त कारिका पर )
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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