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________________ करण-कारक १९५ होंगी' । इस प्रकार भले ही सभी कारक क्रिया के साधक क्यों न हों, यहां 'साधकं करणम्' कहने से काम चल सकता था, क्योंकि पूर्व तथा पर संज्ञाएँ करण को अपने व्यक्तित्व-स्थापन के लिए समुचित अवकाश दे सकती थीं। तमप्-प्रत्यय का अर्थ : पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्ष तथापि 'तमप्' निष्प्रयोजन नहीं हो सकता, क्योंकि 'धनुषा विध्यति' ( धनुष से छेदता है ) इस वाक्य में अपादान तथा करण इन दोनों संज्ञाओं की प्राप्ति हो सकती है । धनुष से बाण का अपाय होने के कारण अपादान तथा साधकता की स्थिति में करण-ये दोनों संज्ञाएँ प्राप्त हैं। दो संज्ञाओं का प्रसंग होने पर करण के निरवकाश होने से अपादान संज्ञा ही होगी, क्योंकि करणसंज्ञा अपादान से भिन्न स्थलों में सावकाश होती है । फलतः 'धनुषा विध्यति' वाक्य का समर्थन नहीं किया जा सकता। यदि हम करण को साधकतम मानें तो दोनों संज्ञाओं के विषयों का विभाग हो जायगा२-एक अपाय द्वारा साधक है, दूसरा यों ही साधकतम है । दोनों के सावकाश होने की स्थिति में परत्व के कारण करण-संज्ञा होगी-'धनुषा विध्यति'३ । पुनः 'तमप्' को निष्प्रयोजन सिद्ध करने के लिए लौकिक दृष्टान्त देकर पतञ्जलि पूर्वपक्ष का उत्थापन करते हैं। जब हम कहते हैं कि अभिरूप व्यक्ति के लिए जल लाओ, अभिरूप वर को ( अभिरूपाय ) कन्या देनी चाहिए, तो अनभिरूप ( असुन्दर, अयोग्य ) में तो हमारी प्रवृत्ति कभी होती ही नहीं; इसके विपरीत हम बोध करते हैं-अभिरूपतम के लिए । तमप्-प्रत्यय लगाये बिना भी इसका अर्थ गम्यमान रहता है । उसी प्रकार 'साधकं करणम्' कह सकते थे। यह ठीक है कि सभी कारक साधक ही हैं, असाधक में हमारी प्रवृत्ति होती भी नहीं कि उसे कारक कहें। जितनी बात पहले से अवगत ही हो और उतनी ही बात पुनः विहित की जाय तो अवश्य ही इसमें कोई अतिशयता या विशेषता गतार्थ होती है। साधक कारकों के बीच ( जहाँ साधकता गम्यमान है ) पुनः साधक ( श्रूयमाण पद के द्वारा) करण का निर्देश सिद्ध कर देगा कि 'साधकतम' कहने का ही भाव होगा। यदि अन्य कारकों की प्रवृत्ति असाधक में भी होती और तब करण को कहते कि यह साधक है, तब साधक का बोध 'साधक' के रूप में ( साधकत्व-प्रकारेण ) ही होता, क्योंकि उसी स्थिति में १. 'नैतदस्ति प्रयोजनम् । पूर्वास्तावत्संज्ञा अपवादत्वाद् बाधिका भविष्यन्ति । पराः परत्वादनवकाशत्वाच्च' । -महाभाष्य २, पृ० २५९ २. 'अत्र संज्ञाद्वयप्रसङ्गे निरवकाशत्वादपादानसंज्ञव स्यात् । करणसंज्ञा ह्यपादानादन्यत्र सावकाशा। तमग्रहणे तु सति विविक्तविषयलाभादुभयोधनुषा विध्यतीत्यत्र परत्वात्करणसंज्ञा सिध्यति' । -उपर्युक्त भाष्य पर प्रदीप ३. 'द्वयोहि सावकाशयोः समवस्थितयोविप्रतिषेधो भवति'। -भाष्य ११३पातिक
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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