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________________ १९२ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन अनुसार त्रिगुणात्मक विषय में जब तमोगुण का आधिक्य होता है, तब वह उदासीन प्रतीत होता है । रजोगुण के उद्भव से वही द्वेष्य तथा सत्त्वगुण के प्राबल्य से ( दोनों अन्य गुणों का अभिभव होने से ) वही विषय ईप्सिततम भी कहला सकता है । अतः इन कर्मों के उदाहरणों में अवस्था-भेद के द्वारा नियमन की बात नहीं भूलनी चाहिए । विष जो मुख्यतः द्वेष्य है, अवस्थाभेद से ईप्सित और उदासीन भी हो सकता है । उदासीन कर्म का उदाहरण प्रायः दिया जाता है-'ग्रामं गच्छंस्तृणं स्पृशति' । तृण कर्ता का अनुद्देश्य होने पर भी क्रियाजन्य संयोगरूप फल धारण करता है। (२) द्वेष्य कर्म--जो ईप्सित नहीं हो, अनिष्ट-साधन हो किन्तु क्रियाफल धारण कर रहा हो, वह द्वेष्य कर्म है; जैसे--विषं भुङक्ते, चौरान् पश्यति इत्यादि में विष और चौर । ऊपर इसका विवेचन किया जा चुका है। ( ३ ) संज्ञान्तर से अविवक्षित कर्म-इसे अकथित या गौण कर्म भी कहते हैं। दुह, याच आदि द्विकर्मक धातुओं के प्रयोग में जो वस्तु अपादान आदि विशेष संज्ञाओं से अविवक्षित हो उसे भी कर्मसंज्ञा होती है; जैसे-'गां दोग्धि पयः' में गौ। गौ की पूर्वविधि ( अपादान ) में प्राप्ति थी, किन्तु उसकी विवक्षा के अभाव में पूर्वविधि की सर्वथा अप्राप्ति हो जाने पर अकथित कर्मत्व होता है । (४) अन्यपूर्वक कर्म-जब दूसरी कारक-संज्ञाओं का बाध करके शस्त्र के द्वारा ही कर्मसंज्ञा का विधान किया जाय तो उसे अन्यपूर्वक कर्म कहते हैं । अष्टाध्यायी के कारकाधिकरण में इसके कई स्थल हैं: यथा (क ) क्रुषहोरुपसृष्टयोः कर्म (१।४।३८)-इसके पूर्व क्रुध, द्रुह आदि धातुओं के प्रयोग में जिसके प्रति कोप होता है, उसे सम्प्रदान-संज्ञा का विधान है। प्रस्तु शास्त्र के द्वारा केवल क्रुध और द्रुह धातुओं में यदि उपसर्ग लगा हो तो कोप के वि 'प को कर्मसंज्ञा का विधान होता है; जैसे-देवदत्तम् अभिक्रुध्यति, अभिद्रुह्यति । किन्तु उ (सर्ग नहीं होने पर-देवदत्ताय क्रुध्यति इत्यादि ही होगा। उपसर्ग के कारण संज्ञा में भेद पड़ने का कोई दार्शनिक कारण प्रतीत नहीं होता । सम्भवतः यह प्रयोग पर आश्रित हो। अथवा मूलरूप में कर्मप्रवचनीय के योग में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता रहा हो, जिसने कालान्तर में रूढ होकर उपसर्गसहित क्रुधादि के योग में कर्मसंज्ञा का रूप धारण कर लिया हो। (ख ) दिवः कर्म च ( १।४।५३ )--साधकतम ( क्रियासिद्धि में प्रकृष्ट उपकारक ) को करण संज्ञा का विधान है। प्रस्तुत सूत्र दिव्-धातु ( खेलना ) के साधकतम को कर्मसंज्ञा का भी विधान करता है; जैसे-अक्षर्दीव्यति ( करण ), अक्षान् दीव्यति ( कर्म )। यहाँ दोनों संज्ञाओं की सार्थकता समझी जा सकती है। जुए के पासों को जब कोई ईप्सिततम समझता है तब उनकी कर्मसंज्ञा होती है और जब उन्हें विजयादि के साधन के रूप में प्रयोग के योग्य मानता है तब करण-संज्ञा भी होती है । 'पाणिनि के समय इनके उभयविध प्रयोग होते थे। 'देवना अक्षाः' ( जुए खेलने के साधन पासे-दीव्यन्त एभिरिति करणे ल्युट ) में करणसंज्ञा तथा
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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