SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९० संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन रहता है। ऐसे सर्प यदि किसी विषय को देखते हैं तो स्पष्टत: वह विषय विषाक्त हो जाता है । इसी प्रकार भयोत्पादक पुरुषों का किसी दूसरे को देखना अवश्य ही कुछ प्रभाव उत्पन्न करता है । इसके साधर्म्य से अन्यत्र भी दार्शनिक क्रियाओं से उत्पन्न होनेवाली विशेषताओं का निर्देश किया जा सकता है । चुम्बक का लोहे पर या फिटकरी ( कतक ) का जल पर प्रभाव देखा जा सकता है । इसके उत्तर में हेलाराज कहते हैं-(१) हीं-कहीं ऐसी विशेषता होने से सर्वत्र नहीं हो जायगी। (२) प्राप्य कर्म में चचित विकार या विशेषता की सत्ता क्रिया के फल में होनी चाहिए, न कि उसके हेतु में देखलायी पड़नेवाले ये विषय क्रिया के हेतु हैं, फल नहीं । (३) सादि के उदाहरण में तेज के संयोग से विषय में विकार होता है, क्रिया का उसमें कोई हाथ नहीं है । चुम्बक और फिटकरी के उदाहरणों में वस्तु का ही स्वभाव ऐसा है जिसमें क्रियाकृत विकृति नहीं होती। अतः क्रियाजन्य विकार से निरपेक्ष प्राप्य कर्म की सत्ता है। फिर भी यह प्रश्न उठ सकता है कि जब प्राप्य कर्म का किसी विकार से सम्बन्ध ही नहीं है तब यह क्रिया की निष्पत्ति में कैसे सहायता पहुँचा सकेगा? कारक या साधना होने के लिए किसी को क्रियासिद्धि का अंग होना अनिवार्य है। इस प्रश्न का उत्तर भर्तृहरि ही देते हैं कि क्रियासिद्धि के लिए प्राप्य कर्म तीन प्रकार के विशेषों की व्यवस्था रखता है जो क्रिया के हेतु हैं, उससे उत्पन्न नहीं । ये हैं 'आभासोपगमो व्यक्तिः सोढत्वमिति कर्मणः । विशेषाः प्राप्यमाणस्य क्रियासिद्धौ व्यवस्थिताः॥ -वा० प० ३७।५३ क) आभासोपगम ( योग्य देश में स्थिति )-कोई भी विषय योग्य स्थान में अव त रहता है तभी दर्शन, गमनादि क्रियाओं का विषय बनकर उनका उपकार करता है । यदि वह ऐसे स्थान में हो जहाँ इन्द्रियों की शक्ति पहुँच ही नहीं सकती या अनावश्यक स्थान में वह स्थित रहे तो सम्बन्ध क्रिया का उपकार उसमें नहीं होगा। किन्तु जब क्रिया उपकृत होती है तब विषय अवश्य ही योग्य देश में हैऐसा विशेष प्रतीत होता है। किन्तु यह विशेष क्रिया का उपकारक ( साधन ) है, फल नहीं । यह क्रिया की सिद्धि करता है, क्रिया से उत्पन्न नहीं होता। (ख) व्यक्ति ( प्रकाशन )-दर्शनादि क्रिया में वस्तु के प्रकाशन के रूप में क्रिया का उपकार होता है, क्योंकि योग्य देश में स्थित होने पर भी प्रकाशन तभी होगा जब प्रकाश के प्रतिबन्धक ( कुहेलिकादि ) पदार्थों का अभाव हो तथा प्रदीपादि की सत्ता हो। इसलिए अभिव्यक्ति दर्शन-क्रिया का साधन या अंग है। वस्तु के १. तुलनीय-वा०प० ३७।५२ तथा उस पर हेलाराज 'विशेषलाभः सर्वत्र विद्यते दर्शनादिभिः । केषाञ्चित्तदभिव्यक्तिसिद्धिर्दष्टविषादिषु' ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy