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________________ १८४ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन 'मासं वेदमधीते'१ । प्रस्तुत स्थल में केवल अकर्मक धातुओं के योग में कर्म-कारक का विधान है । भर्तृहरि सकर्मक धातुओं के साथ भी इसके प्रयोग का संकेत करते हैं । उसका कारण है कि दूसरी क्रियाओं ( व्याप्ति आदि ) को अन्तर्भूत करने वाले धातुओं के योग में ( वे सकर्मक हों या अकर्मक ) कालादि को कर्मसंज्ञा होती है। तदनुसार 'मासमास्ते' का अर्थ है-मासं व्याप्यास्ते । आसन-क्रिया के अंग ( अन्तर्भूत क्रिया ) के रूप में व्याप्ति-क्रिया है । ऐसा मानने पर यह शंका हो सकती है कि जब क्रियान्तर की अपेक्षा से कर्मत्व का उपपादन हो ही जाता है तब वार्तिक के द्वारा उपसंख्यान करने की क्या आवश्यकता है ? किन्तु ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए। उपसंख्यान के बिना यदि यों ही क्रियान्तर की अपेक्षा से कर्म-संज्ञा मानने लगें तो आस् आदि धातु उक्त शब्दों के साथ सकर्मक हो जायेंगे तथा उनसे कालादि कर्मों में ही लकार, कृत्य, क्त तथा खलर्थ प्रत्यय होने लगेंगे-अकर्मक होने के कारण भाव में नहीं। अतः 'मासमास्यते, आसितव्यं देवदत्तेन' इत्यादि में भाव में लकारादि नहीं होंगे। किन्तु 'ल: कर्मणि च.' इस वचन से अकर्मक से भाव में लकार तो होता ही है। तो स्थिति यह है कि कालादि कर्म रहने पर भी इसे अकर्मक कैसे कहें ? पुनः सकर्मक हो जाने पर इसमें भाव में लकार कैसे होगा ? हेलाराज ने इस द्विविधा का सम्यक् शमन किया है । अन्तरंग तथा बहिरंग भेद से कर्म दो हैं। द्रव्यात्मक कर्म अन्तरंग हैं, जिसके साथ पहले सम्बन्ध होता है और कालादि कर्म बहिरंग हैं । सकर्मक तथा अकर्मक की व्यवस्था अंतरंग कर्म पर आश्रित है। अतएव लकारादि बहिरंग कर्म में नहीं होते तथा अन्तरंग कर्म के अभाव में 'मासमास्ते' इत्यादि में अकर्मक धातु ही माना जाता है, सकर्मक नहीं । 'मासमोदनं पचति में मास व्याप्ति का विषय है तथा सकर्मक क्रिया का प्रयोग भी है। उपर्युक्त 'अन्तर्भूतक्रियान्तर' के नियम से यहाँ मास में भी कर्मत्व की सिद्धि होती है। अतः कालादि कर्मों के साथ पचादि धातुओं की द्विकर्मकता सिद्ध होने पर भी प्रधानभूत द्रव्यकर्म में ही लकारादि होते हैं, अप्रधान ( कालादि ) में नहीं । भर्तृहरि ने इन कालादि कर्मों के अप्रधान होने का सम्यग उपपादन किया है कि ये द्रव्यकर्मों के आधार-रूप में रहने के कारण 'भिन्न कक्षा वाले' हैं । इसीलिए ये अप्रधान हैं 'आषारत्वमिव प्राप्तास्ते पुनग्यकर्मस् । कालादयो भिन्नकक्ष्यं यान्ति कर्मत्वमुत्तरम् ॥ -वा०प० ३।७।६८ १. श० को० २, पृ० १३६ । २. 'अन्तर्भूतक्रियान्तरैरिति । अन्तर्भूतं प्रधानक्रियापेक्षया क्रियान्तरं येषामिति ते तथा'। -हेलाराज ___ ३. 'व्याप्त्यादिक्रिययाप्तुमिष्यमाणत्वात् कालादीनां स्फुटमेव कर्मत्वमिति यत्नान्तरेण नार्थः'। –हेलाराज, पृ० २८२
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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