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________________ कर्म-कारक १८१ किन्तु नागेश भाष्यकार के प्रामाण्य पर आश्रित होकर प्राप्त सम्प्रदान-कारक की अविवक्षा होने से ही यहां अकथित कर्म मानते हैं । उनके अनुसार विषय के रूप में ( विषयतया ) ज्ञान के अनुकूल शब्द-प्रयोग करना ब्र-धात का अर्थ है और यही अर्थ यदि प्रवृत्तिजनक हो जाय तो उसे शासन ( शास् का अर्थ ) कहते हैं। जैसे 'धर्म कुरु' इत्यादि के रूप में विधिवाक्य-स्थित उपदेश । दोनों स्थितियों में कर्ता के व्यापार के बाद उसके ज्ञान के आश्रय के रूप में माणवक सम्बद्ध है, क्योंकि वह वचनादि कर्म ( धर्म ) से अभिप्रेयमाण ( सम्प्रदान ) है। यदि पूर्वविधियों के विषय में माणवक सर्वथा अप्राप्त होता ( जैसा कि हेलाराज कहते हैं ), तो इस सूत्र से कर्म हो ही नहीं सकता; क्योंकि भाष्यकार की तद्विषयक कारिका का विरोध होगा--'उपयोगनिमित्तमपूर्वविधौ' । अपूर्व-विधि का अर्थ है कि पूर्व संज्ञाओं में प्राप्ति अवश्य हो, किन्तु विवक्षा न हो। इस प्रकार भाष्य-गृहीत धातुओं के प्रयोगों का विवेचन हेलाराज तथा नागेश के पृथक दृष्टिकोणों से सम्पन्न हुआ। हेलाराज इसे 'गतिबुद्धिः' इत्यादि सूत्र से प्रयोज्य कर्ता को होने वाली कर्मसंज्ञा के रूप में नहीं देखते, क्योंकि उसमें तो गम्यादि कुछ निश्चित ण्यन्तों के साथ ही कर्मसंज्ञा का विधान है; अर्थात् वह नियामक सूत्र है। प्रस्तुत स्थल में दूसरे धातुओं के प्रयोग में ( चाहे वहाँ अन्तर्भूत ण्यन्त क्यों न हो ) कर्मसंज्ञा हुई है, अतः उस सूत्र की प्रवृत्ति यहाँ नहीं। , प्रयोज्य कर्ता का कर्मत्व कर्मविषयक पाणिनि का चौथा सूत्र है-'गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थशब्दकर्माकर्मकाणामणि कर्ता स णौ' ( पा० १।४।५२ )। इसके अनुसार निम्नांकित स्थितियों में अणिजन्त क्रिया का कर्ता उस क्रिया का णिजन्त प्रयोग होने पर कर्म बन जाता है (१) गत्यर्थक धातु-गच्छति माणवको ग्रामम् । गमयति माणवकं ग्रामम् । किन्तु नी-धातु गत्यर्थक होने पर भी प्रयोज्य कर्ता को कर्म नहीं बनाता ( अतः अनुक्त कर्ता में तृतीया होती है )-नयति देवदत्तः । नाययति देववत्तेन । गत्यर्थक वह-धातु के प्रयोग में यदि प्रयोजक कर्ता नियन्ता ( पशुप्रेरक ) के रूप में न हो तो भी कर्मसंज्ञा नहीं होती । जैसे-वहति भारं देवदत्तः । वायति भारं देवदत्तेन । पशुप्रेरक होने की स्थिति में वहन्ति बलीवर्दा: यवान् । वाहयति बलीवन यवान् । पूर्व उदाहरण में मनुष्य को प्रेरित करने का अर्थ है, यहाँ पशु को। १. 'प्राप्तसम्प्रदानत्वाविवक्षायामनेन कर्मत्वमिति स्पष्टं भाष्ये । अनयोर्योगे सर्वथा पूर्वविधिविषयाप्राप्तियोग्ये विषये नानेन कर्मत्वमनभिधानात्' ।। -ल० म०, पृ० १२३० २. 'गतिबुद्धीति च नियमार्थ सूत्रं गम्यादीनामेव ण्यन्तानां प्रयोज्यः कर्म, नान्येषां पच्यादीनामित्यण्यन्तविषयेऽत्र न प्रवर्तते' । -हेलाराज, पृ० २८९ ३. 'वहेरनियन्तृकर्तृकस्य' ( वार्तिक )। -महाभाष्य २, पृ० २७५
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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