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________________ कर्म-कारक १७७ 'प्रधानकर्म कथितं यत् क्रियायाः प्रयोजकम् । तत्सिद्धये क्रियायुक्तमन्यत्त्वकथितं स्मृतम् ॥ -वा०प० ३७७१ अर्थात् जिस फलभूत पदार्थ के उद्देश्य से क्रिया के प्रवर्तन में दूसरे साधन ( कारक ) सज्जित होते हैं तथा जिसकी प्राप्ति हो जाने पर उदासीन हो जाते हैं उसे, ईप्सा के प्रकर्ष से युक्त प्रधान पदार्थ को, प्रधान कर्म कहते हैं, जो कर्ता के ईप्सिततम के रूप में पहले ही कहा गया है; जैसे पयस आदि । दूसरी ओर उसकी प्राप्ति के लिए जो अनीप्सित होने पर भी आवश्यक होने के कारण क्रिया से अन्वित होता है वह अकथित कर्म है, जो अप्रधान से भिन्न कक्षा ( कोटि ) वाला है । जैसेगो आदि ( हेलाराज )। अकथित कर्म की भिन्नकक्ष्यता धात्वर्थ के उद्देश-भेद से होती है अर्थात् अकथित कर्ममात्र ईप्सिततम नहीं है । किन्तु भर्तृहरि के इस कथन में कुछ ऐसी भाषा का प्रयोग है कि इससे उनकी अरुचि प्रकट होती है । ___ एककर्मवाद के निरूपण में हरि णिजर्थ का आश्रय लेते हैं। उनका कहना है कि एकमात्र प्रधान ही कर्म है, क्योंकि दुहादि क्रियाओं में णिच् का अर्थ ( प्रेषण, प्रेरणा) अन्तत रहता है तथा तथाकथित अकथित कर्म प्रयोज्य कर्ता का ही दूसरा रूप है। हरि की वह कारिका इस प्रकार है 'अन्तर्भूतणिजनां दुह्यादीनां 'णिजन्तवत् । सिद्धं पूर्वेण कर्मत्वं णिजन्तं नियमस्तथा ॥ -वा० प० ३।७।७३ हेलाराज ने इसकी विशद व्याख्या करते हुए विभिन्न उदाहरणों का अन्तर्भाव दिखलाया है। (१) गां दोग्धि पयः-इसमें गौ दुग्ध का क्षरण करती है और देवदत्त उसे क्षरण करने के लिए व्यापारित करता है ( तां क्षरन्तीं क्षारयति ) । दोहन का यही क्षरण रूप अर्थ है । क्षरण-क्रिया के द्वारा दुग्ध आप्यमान होने के कारण कर्म है तो क्षारण-व्यापार के द्वारा आप्यमान गौ भी कर्म है—दोनों ईप्सिततम है। यह सही है कि अर्थतः ( आर्थरूप से ) दुग्ध प्रधान कर्म है तथा गौ उसका उपाय या साधनमात्र है, किन्तु शब्दतः ( आभिधेयक रूप से ) क्षरण का गौणार्थ क्षारण दुह-धातु के शब्दार्थ के रूप में गृहीत होने से गौ ही प्रधान कर्म है और इसीलिए उसी में लकारादि होते हैं-दुह्यते गौः पयः, दोग्धव्या इत्यादि । अतएव 'अप्रधाने दुहादीनाम्' इत्यादि भाष्यकारिका का समर्थन आर्थरूप का आश्रय लेकर करना चाहिए। इसी से अप्रधानता की उपपत्ति होती है। यह शंका हो सकती है कि अपायविवक्षा के बिना १. 'सर्व वाकथितं कर्म भिन्नकक्ष्यं प्रतीयते । धात्वर्थोद्देशभेदेन तन्ने ततमं किल' ॥ -वा०प० ३७७० २. हेलाराज ( उक्त स्थल पर ) "किल' इत्यस्मिन्पक्षेऽरुचि सूचयति । तथा चाभिन्नमेव कर्मेति सिद्धान्तयिष्यति"।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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