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________________ १६८ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन 'ग्रामं त्यजति'-इस वाक्य में 'प्रतियोगित्व से विशिष्ट' समवाय के रूप में फलतावच्छेदक सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध में ग्राम विभागाश्रय हो---कर्ता की इस इच्छा से सम्बद्ध फल में निहित विषयता ( =विशेष्यतारूप ) की अवच्छेदकता समवाय में है। दूसरे शब्दों में विभाग का प्रतियोगी ग्राम है, वह कर्म है। यह स्मरणीय है कि विभागावच्छिन्न व्यापार के वाचक धातुओं के प्रयोग में ( जैसे- त्यज् ) प्रतियोगित्व से विशिष्ट समवाय सम्बन्ध से ही फलाश्रय से रूप में उद्दिष्ट पदार्थ की कर्मसंज्ञा होती है, अन्यथा नहीं। 'ग्रामं त्यजति' में उक्त सम्बन्ध है, किन्तु 'ग्रामाद् विभजते' में नहीं । इसमें अनुयोगित्व-विशिष्ट समवाय की सत्ता है । इसीलिए 'ग्रामं विभजति' प्रयोग नहीं होता । वितरणार्थक विभजन-क्रिया के प्रयोग में हो सकता है, किन्तु वह स्थिति ही भिन्न है। ___ अब नागेश के शब्दों में ही उनके कर्मलक्षण का विश्लेषण देखें । उन्होंने 'प्रकृत' विशेषण का प्रयोग एक ओर तो धात्वर्थ के प्रधानभूत व्यापार के लिए किया है और दूसरी ओर धात्वर्थफल के लिए किया है । दोनों की परिस्थितियाँ भिन्न हैं, जिससे फलभेद भी होता है । पहली स्थिति में लगाये गये 'प्रकृत' विशेषण का फल है कि माष के खेत में पहुँचे हुए अश्व को कोई व्यक्ति 'माषनाश न हो' इस उद्देश्य से अलग बांध देता है तो इस अर्थ में प्रयुक्त होनेवाले 'माषेष्वश्वं बध्नाति' वाक्य में माष का कर्मत्व वारित होता है । पुनः व्यापार में 'प्राधान्य' विशेषण लगाने से 'अग्नेर्माणवक वारयति' में माणवक में कर्मत्व की अव्याप्ति नहीं हो पाती। प्रकृत शब्द का दूसरी स्थिति में यह उपयोग है कि जब अश्व की पुष्टि के लिए माष के खेत में उसे बाँधने के अर्थ में 'माषेष्वश्वं बध्नाति' का प्रयोग किया जाय तब भी माष में कर्मत्व की अतिव्याप्ति न हो । बन्धन-क्रिया से उत्पन्न होनेवाले गलस्थ रज्जु के अधःसंयोग रूप फल का आक्षय तो माष निस्सन्देह है, किन्तु उक्त अधःसंयोग बन्धन-क्रिया का प्रकृतार्थ है ही नहीं। __'गां पयो दोग्धि' का उदाहरण देते हुए नागेश कहते हैं कि पयस में स्थित जो विभाग है उसके अनुकूल व्यापार गौ में है ( विभागानुकूल-व्यापारो गोवृत्तिः )। इस व्यापार के अनुकूल ( जनक ) व्यापार की स्थिति गोप में है.। यह गोप दुह-धातु का कर्ता है । इससे स्पष्ट है कि दुह-धातु का अर्थ 'विभाग के अनुकूल ( जनक ) व्यापार के अनुकूल व्यापार' है । यहां पयस् में जन्यता साक्षात् रूप में नहीं, प्रत्युत परम्परया विद्यमान है। कर्मत्व-लक्षण में नागेश ने वास्तव में 'प्रयोज्य' शब्द का इसीलिए निवेश किया है कि धात्वर्थ के मुख्य व्यापार से जन्म लेनेवाला फल साक्षात् उत्पन्न हो ( जैसे-ओदनं पचति ) या परम्परया उत्पन्न हो ( जैसे-पयो दोग्धि )-दोनों १. ५० ल० म०, वंशी, पृ० १४० । २. " 'गां दोग्धि' इत्यादी विभागानुकूलव्यापारानुकूलव्यापारार्थक-दुहिसत्त्वेन पयसः कर्मत्वसङ्ग्रहः" । -ल० म०, कला, पृ० १२०३
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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