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________________ १६६ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन है कि घट के नष्ट होने पर या उसकी उत्पत्ति के पूर्व भी सूक्ष्मरूप में घट की स्थिति रहती ही है। अतः विषयता-सम्बन्ध के बिना भी अतीतकालिक या अनागत घट ( सूक्ष्मरूप में स्थित ) में आवरण-भंग की उपपत्ति हो सकती है। वाक्यपदीयकार इसी मत के समर्थक प्रतीत होते हैं, जिनकी यह कारिका भूषण के दोनों संस्करणों में उद्धृत है "तिरोभावाभ्युपगमे भावानां सैव नास्तिता। लन्धक्रमे तिरोभावे नश्यतीति प्रतीयते ॥ -वा० प० ३।१।३८ अर्थात् भावपदार्थ का जब तिरोभाव ( सूक्ष्म रूप में अवस्थान ) स्वीकार किया जाता है तब हम कहते हैं कि वह नष्ट हो गया, नहीं है। अतः तिरोभाव, नाश या सूक्ष्मरूप में सत्ता--ये सभी पर्याय हैं; संज्ञा-शब्दों से उसी एक स्थिति का बोध होता है । दूसरी ओर जब वही तिरोभाव पूर्वापरीभूत क्रम से विभिन्न साधनों के सम्पर्क के कारण प्रक्रान्त रहता है तब हम 'नश्यति' इस आख्यात-पद का प्रयोग करते हैं। तात्पर्य यह है कि वस्तु का विनाश उसके उच्छेद या सत्ताभंग का बोधक नहीं है प्रत्युत उसमें तिरोभाव ( सूक्ष्म स्थिति ) निहित है । यही बात उत्पत्ति के विषय में भी है, जिसका अर्थ सर्वथा नवीन उत्पादन (या असत् का सत् के रूप में परिणमन ) नहीं, प्रत्युत सूक्ष्म रूप में स्थित पदार्थ की स्थूलरूप में अभिव्यक्ति ( आविर्भाव ) ही है । वैयाकरणभूषण में इस व्याख्या से अरुचि प्रदर्शित करते हुए कहा गया है कि वास्तव में 'जानाति, इच्छति, द्वेष्टि, सन्देग्धि' इत्यादि क्रियाओं के अनुरोध से इनमें ज्ञान, इच्छा आदि ( फल ) के अनुकूल व्यापार ही धात्वर्थ है । यह व्यापार ज्ञान को उत्पन्न करने वाले मन और चक्षुःसंयोग आदि के रूप में होता है। इसीलिए 'मनो जानाति', 'चक्षुः पश्यति' इत्यादि प्रयोग संगत होते हैं, जिनमें मन, चक्षु आदि को व्यापाराश्रय दिखलाकर कर्ता-कारक की व्यवस्था की गयी है। 'इच्छति' आदि में इच्छादि के अनुकूल ज्ञानादि व्यापार तथा इच्छादि फल है। इस प्रकार इच्छा, ज्ञानादि फलों का आश्रय होने से घटादि को कर्म कहा जा सकता है । साथ ही उपयुक्त धातुओं की सकर्मकता भी सिद्ध होती है। . ( ३ ) नागेशभट्ट अपने लघुशब्देन्दुशेखर, परमलघुमञ्जूषा ( शेखरवत् ) तथा १. "सत्तव तिरोभूता स्वकारणेषु शक्तिरूपतयावस्थिता वस्तूनां नाशः, न तु निरुपाख्योऽसौ । समस्तेषु च भावेषु तिरोभूतेषूपसंहृतक्रम: सिद्धरूप: 'तिरोभावः नाशः' इत्यादिनामपदप्रत्याय्यः"। -हेलाराज ३, पृ० ४५ २. तुलनीय ( सांख्यतत्त्वकौमुदी, का० ९)-"यथा हि कूर्मस्याङ्गानि कूर्मशरीरे निविशमानानि 'तिरोभवन्ति' निस्सरन्ति च 'आविर्भवन्ति' ...... मृदः सुवर्णस्य वा घटमुकुटादयो विशेषा निस्सरन्तः आविर्भवन्त 'उत्पद्यन्ते' इत्युच्यन्ते, निविशमानास्तिरोभवन्तो 'विनश्यन्ति' इत्युच्यन्ते' । ३. 'ईप्सिततमत्वं च प्रकृतधात्वर्थप्रधानीभूतव्यापारप्रयोज्यप्रकृतधात्वर्थफलाश्रयखेनोद्देश्यत्वम् । -ल० श० शे०, पृ० ४०३
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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