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________________ कर्म कारक १४५ कभी-कभी क्रिया के ही ईप्सिततम हो जाने का भ्रम होता है। जैसे 'गुडं भक्षयति' इस उदाहरण में भक्षण-क्रिया ही ईप्सित' है, क्योंकि उस क्रिया की उत्पत्ति के लिए ही गुड़ का उपादान हो रहा है, न कि गुड़ के लिए भक्षण-क्रिया का अनुष्ठान हो रहा है । फलतः गुड़-शब्द कर्म नहीं हो सकेगा। कैयट इस पूर्वपक्ष के अनुसार क्रिया तथा कर्म के ईप्सित होने की परिस्थितियों के मध्य स्पष्ट विभाजक-रेखा खींचते हैं । कर्म वहीं ईप्सित होता है जहाँ निष्पत्ति ( नवीन उत्पादन ), संस्कार ( नवीन गुणाधान ) तथा प्रतिपत्ति ( प्राप्ति ) के रूप में प्रयुक्त साधनों की सहायता से क्रिया कर्म के लिए उपस्थित होती है । इससे भिन्न स्थानों में प्रतीयमान संदर्शनादि क्रियाओं की अपेक्षा से क्रिया ही ईप्सित होती है। प्रकृत स्थल में भी इसी प्रकार गुड़-भक्षण क्रिया ईप्सित है अपने ही द्वारा उठायी गयी इस शंका का समाधान कात्यायन ने किया है कि यहाँ इसलिए दोष नहीं हो सकता क्योंकि क्रिया के साथसाथ कर्म भी व्यक्ति को ईप्सित है। जिसे गुड-भक्षण ईप्सित है उसे भक्षण-क्रिया के द्वारा गुड़ भी ईप्सित ही है। यदि कर्म ईप्सित नहीं होता तो गुड़-भक्षण का विचार रखनेवाला व्यक्ति पत्थर खाकर भी संतुष्ट हो जाता, किन्तु ऐसा नहीं होता है । क्रिया के ईप्सित होने के दूसरे उदाहरण भी हो सकते हैं। राज्य की सेवा में लगे हुए मनुष्य कुछ-न-कुछ क्रिया का ही संपादन करके समय बिताते हैं, उनका किसी द्रव्य-विशेष में आदर नहीं होता। उनमें कोई वरिष्ठ अधिकारी अपने अधीनस्थ को आदेश देता है कि चटाई बनाओ ( कटं कुरु )। वह उत्तर देता है-मैं चटाई नहीं बना सकता, क्योंकि मैं पहले घड़ा ला चुका हूँ ( एक क्रिया कर चुका हूँ, दूसरी क्रिया नहीं करूँगा)। स्पष्टतः उसे क्रिया ईप्सित है, द्रव्य नहीं । पतञ्जलि इस विवाद का समाधान करते हैं कि यद्यपि कर्मचारी को क्रिया ईप्सित है किन्तु जो आदेश देता है, उसे दोनों ही ईप्सित है--कर्मचारी द्वारा की गयी क्रिया भी तथा उस क्रिया से आप्यमान पदार्थ ( कर्म ) भी। भाष्यकार का आशय यह है कि प्रयोजक को तो दोनों अभीष्ट है ही, किन्तु प्रयोज्य भी वेतनादि-लाभ के लिए प्रयोजक के मन को अपने अनुकूल बनाये रखना चाहता है; इसलिए उसे भी दोनों ही ईप्सित है, क्योंकि प्रयोजक के आदेशानुसार जब प्रयोज्य विशिष्ट कर्म से युक्त क्रिया का संपादन करता है तभी १. 'ईप्सित का प्रयोग ईप्सिततम के लिए हुआ है। (द्र०-कैयट-प्रदीप, पृ० २६२ ) 'ईप्सिततममेवेप्सितपदेन सामान्यशब्देन निर्दिष्टम् । विशेषेषु सामान्यस्य भावात्। २. 'यत्र हि कर्मार्था क्रिया निष्पत्तिसंस्कारप्रतिपत्तिभिः तत्र कर्मेप्सितम्' । ( उद्योत )-'निष्पत्तिः कटादेः । संस्कारः, प्रोक्षणादिना व्रीह्यादेः । प्रतिपत्तिर्दाहादिना हविरादेः'। -प्रदीप, वहीं ३. 'यस्य हि गुडभक्षणे बुद्धि. प्रसक्ता भवति नासौ लोष्टं भक्षयित्वा कृती भवति । -भाष्य २, पृ० २६२
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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