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________________ कर्तृ-कारक १३९ माणवकम्' । कारीष ( निर्धूमाग्नि ) शैत्य का निवारण करके अध्ययन के लिए भौतिक अनुकूलता उत्पन्न करते हुए छात्र को अध्ययन में प्रयुक्त करता है। ( ३ ) कर्मकर्ता-- इसकी व्याख्या दो प्रकार से की जाती है। एक प्रकार, जो बहुत कम प्रचलित है, यह है कि धातु से उपात्त व्यापार का आश्रय होने के साथसाथ जो णिजर्थ के व्यापार के द्वारा व्याप्य हो; यथा--'गमयति कृष्णं गोकुलं गोपः' । यहाँ कृष्ण कर्मकर्ता है। कर्मकर्ता का यही लक्षण और उदाहरण वैयाकरणभूषण (पृ० १०८ ) में स्वीकृत है जहाँ इसका शाब्दबोध भी कराया गया है-'गोकुलकर्मकगमनानुकूल-कृष्णाश्रयक-तादृश-व्यापारानुकूलो व्यापारः' । वास्तव में यह पाणिनि के सूत्र ‘गतिबुद्धिप्रत्यवसान०' का उदाहरण है, जो कुछ निश्चित धातुओं के कर्ता में णिजन्तावस्था में कर्मसंज्ञा का विधान होने से दिया गया है। पाणिनि के अनुसार तो उसे 'कर्म' कहना चाहिए, अन्यथा सभी प्रयोज्यों को 'शुद्धकर्ता' मानना ही उचित हैवे प्रयोज्य चाहे द्वितीया में हों या तृतीया में । यह तो लौकिक प्रयोग है, जो कुछ धातुओं के प्रयोग में प्रयोज्य को द्वितीया-विभक्ति में रखता है तो शेष धातुओं का प्रयोग होने पर तृतीया में । इस व्यत्यय के कारण प्रयोज्य के कर्तृत्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उक्त उदाहरण का शुद्ध कर्ता में अन्तर्भाव होने के कारण लोगों ने कर्मकर्ता का दूसरा लक्षण किया है। हम जानते हैं कि जब सौकर्य का अतिशय द्योतित करने के लिए कर्तृव्यापार की विवक्षा नहीं होती तब दूसरे कारक भी कर्तृसंज्ञा ग्रहण करते हैं । इस रीति से जब कर्म की कर्ता के रूप में विवक्षा होती है तब उसे कर्मकर्ता कहा जाता है । दुर्गसिंह ने कातन्त्रवृत्ति में इसका लक्षण दिया है - "क्रियमाणं तु यत्कर्म स्वयमेव प्रसिद्धयति । सुकरैः स्वर्गुणैः कर्तुः कर्मकर्तेति तद् विदुः'3 ॥ __ किया जानेवाला कर्म जब अपने आप सम्पन्न होता हो तथा सुकरता के कारण कर्ता के गुणों को अपने में धारण करता हो तब उसे कर्मकर्ता कहते हैं; यथा-पच्यते ओदनः स्वयमेव । भिद्यते काष्ठं स्वयमेव । 'कर्मवत्कर्मणा तुल्यक्रियः' ( पा० सू० ३।१।८७ ) सूत्र से कर्मकर्ता को कर्मवद्भाव होता है, यदि क्रिया कर्मस्थ होने की क्षमता रखती है । क्रिया यदि केवल कर्तृस्थ ही रह सकती है तो कर्मवद्भाव नहीं होता; यथा-मासमास्ते । कर्मकर्ता केवल निर्वर्त्य तथा विकार्य कर्मों का ही हो सकता है, प्राप्य कर्म को नहीं । १. रभसनन्दि, कारकसम्बन्धोद्योत, पृ० १५ । २. न्या० को०, पृ० २०२।। ३. न्या० को०, पृ० २०२ में उद्धृत । ४. 'कर्मस्थः पचतेर्भावः कर्मस्था च भिदेः क्रिया। ___ मासासिभावः कर्तृस्थः कर्तृस्था च गमेः क्रिया' ॥ -काशिका, पृ० १५८ ५. 'निर्व] च विकार्ये च कर्मवद्भाव इष्यते। न तु प्राप्ये कर्मणीति सिद्धान्तो हि व्यवस्थितः ॥ -वै० भू० कारिका ७
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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