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________________ कर्तृ-कारक १३७ (१) बुद्धिस्थ घट ( भौतिक नहीं ) कर्ता है। (२) घट शब्द से इसके उपादान-कारण मृत्तिका का बोध होता है, जो कार्यकारण की अभिन्नता के कारण कार्यात्मक होकर उत्पन्न होता है। इसका पूर्ण विश्लेषण भर्तृहरि तथा हेलाराज ने किया है । (३) ब्रह्म के द्वारा जब अविद्यावशात् नानात्व, भाव, अभावादि के रूप धारण किये जाते हैं ( जो गौण-प्रयोग नहीं, मिथ्या-प्रयोग है ) तब उन्हीं रूपों के समान किसी वस्तु के जन्म या नाश का व्यवहार भी मिथ्याज्ञान के फलस्वरूप ही होता है । अद्वैत वेदान्त के इसी सिद्धान्त को कला-टीका में नागेश का 'परम सिद्धान्त' कहा गया है। परमलघुमञ्जूषा बहुत संक्षेप में 'प्रकृतधातुवाच्यव्यापाराश्रयत्वं कर्तृत्वम्' की व्याख्या करके कर्ता की उक्त तथा अनुक्त अवस्थाओं के उदाहरणों का वैयाकरणसम्मत शाब्दबोध कराती है। उक्तावस्था का उदाहरण है-'चेत्रो भवति'। इसका शाब्दबोध इस प्रकार होगा __ 'एकत्वावच्छिन्न-चैत्राभिन्नकर्तृकं भवनम् । अर्थात् एकत्व-संख्या से निर्धारित चैत्र से अभिन्न कर्ता के द्वारा होने की क्रिया । इस स्थल में 'तिङसमानाधिकरणे प्रथमा' तथा 'अभिहिते प्रथमा' ये दो वार्तिक प्रथमा का विधान करते हैं। सूत्र के मत से जो कर्ता-कर्मादि अर्थवाले प्रत्यय से कर्ता आदि के उक्त रहने पर प्रथमा का प्रातिपदिकार्थ ही अर्थ है। इसीलिए तिङर्थ के द्वारा क्रिया में अन्वय होने के कारण प्रथमार्थ के क्रियाजनक होने से प्रथमा को भाष्य में 'कारकविभक्ति कहा गया है । यहाँ वार्तिक तथा भाष्य का आशय यह है कि तिङ्-कृत् आदि से कर्ता आदि के अभिहित होने पर प्रथमाविभक्ति अनुभूत ( अप्रकाशित ) कर्तृत्वादि शक्तियों ( धर्मों ) को प्रतिपादित करती है। कर्मवाचक तिङन्त का उदाहरण है-'चैत्रेण ग्रामो गम्यते' । नागेश के अनुसार इसका शाब्दबोध इस प्रकार होगा 'चैत्रकर्तृकव्यापारजन्यः एकत्वाववच्छिन्नग्रामाभिन्नकर्मनिष्ठः संयोगः' । यहाँ क्रियाफल को मुख्य विशेष्य रखा गया है । ग्राम कर्म है, जो प्रथमाविभक्ति में है । अतः उसी में एकत्व-संख्या को विशेषण बनाकर क्रिया का निर्धारण हुआ है। कर्ता के भेद कर्ता के सर्वत्र तीन भेद किये गये हैं-शुद्धकर्ता, हेतुकर्ता ( प्रयोजक ) तथा कर्मकर्ता। (१) शुद्धकर्ता-'स्वतन्त्रः कर्ता' के द्वारा इसी का विधान होता है। अन्य १. द्रष्टव्य-ल० म०, पृ० १२४७ पर कला । २. 'अत एवाख्यातार्थद्वारकक्रियान्वयात् तदर्थस्य क्रियाजनकत्वादस्याः कारकविभक्तित्वेन भाष्ये व्यवहारः' । -प० ल० म०, पृ० १६७
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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