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________________ कर्तृ-कारक १३५ निवृत्त हो । प्रयोज्य की स्वतन्त्रता का निरूपण करते हुए पतञ्जलि इसका विधिवत् विश्लेषण कर चुके हैं। प्रयोजक और प्रयोज्य दीक्षितादि प्राचीन वैयाकरणों का ( संभवतः गुरु-परम्परा से आगत ) मत नागेश उद्धृत करते हैं कि स्वतन्त्ररूप से अभिमत पदार्थ साक्षात् या परम्परा से धात्वर्थ का आश्रय होता है। प्रयोजक कर्ता तो साक्षात् आश्रय नहीं होता, अत: उसके लिए परम्परा की विधि अनिवार्य है। एक प्रयोग है--'पञ्चभिर्हलैः कषति' ( पाँच हलों से खेत जोतता है ) । पाँच हलों को चलानेवाले पाँच व्यक्ति होंगे जिन्हें कोई बड़ा किसान ( प्रयोजक ) प्रेरित करता है। यहाँ हल जोतने वाले ( कर्षक ) में स्थित विलेखन-व्यापार के आश्रयरूप कर्षकों को प्रयोजित करनेवाले भू-स्वामी में परम्परा से धात्वर्थ-व्यापार की आश्रयता है। यदि 'परम्परा'-सम्बन्ध स्वीकार नहीं करें तो प्रयोज्य का व्यापार धात्वर्थ हो जायगा, जिसके आश्रय एक नहीं, पाँच हैं; अतः बहुवचन-क्रिया की आपत्ति होगी। यदि प्रयोजक-व्यापार को साक्षात् धातुवाच्य (धात्वर्थ ) मानें तो णिच्-प्रत्यय ( हेतुमति च ) की आपत्ति होगी। इसलिए 'परम्परया' सम्बन्ध अनिवार्य है। प्राचीन वैयाकरण अन्तर्भावितण्यर्थ का भी यही अर्थ स्वीकार करते हैं कि जहाँ परम्परा से प्रयोजक का व्यापार धातुवाच्य हो रहा हो ( वहाँ ण्यर्थ अन्तर्भूत-छिपा हुआ है )। यह पूरा विवेचन नागेश को अमान्य है, किन्तु वे अन्तर्भावितण्यर्थ का विशेष रूप से विचार करते हैं । परम्परा से प्रयोजक का व्यापार धातुवाच्य होने पर सर्वत्र णिच का प्रयोग अपेक्षित है, किन्तु यदि वह किसी कारण से अप्रयुक्त रह गया हो तो इष्टसिद्धि के लिए णिजर्थ का अन्तर्भाव समझ लेना चाहिए। उदाहरणार्थ 'राजनि युधि कृत्रः' ( पा० सू० ३।२।९५ ) में कहा गया है कि राजन्-शब्द कर्म के रूप में उपपद में रहे तो युध् तथा कृ धातुओं से क्वनिप्-प्रत्यय होता है । अब समस्या यह है कि युध्धातु तो अकर्मक है तब राजा उसका कर्म कैसे होगा? जयादित्य उत्तर देते हैं'अन्तर्भावितण्यर्थः सकर्मको भवति' ( काशिका, पृ० १८५ ) । तदनुसार युध-धातु में णिजर्थ का अन्तर्भाव मान लेने पर सकर्मकता आ जायेगी और 'राजयुध्वा' ( राजानं योधितवान् ) शब्द निष्पन्न हो सकेगा। किन्तु यदि स्वरवृत्ति से हम जहां-तहां इस अन्तर्भावितण्यर्थ का उपयोग करने लगें तो अकर्मक क्रिया की सत्ता लुप्त हो जायेगी। नागेश का निर्णय है कि णिच् के अभाव में भी उसका अर्थ व्यक्त हो रहा हो तभी इस शस्त्र का उपयोग होता है-धातु की इस प्रकार की वृत्ति वास्तव में होती है, इसमें सन्देह नहीं । १. 'तस्माद् धातूनामनेकार्थत्वात् ण्यर्थान्तर्भावेणापि धातोर्वत्तिः । परन्तु यत्र णिचोऽभावेऽपि तदर्थद्योतकमस्ति, तत्रैव । यथा प्रकृते पञ्चभिहलैरिति' । -ल० म०, पृ० १२४९
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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