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________________ ११८ संस्कृत - व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन असमर्थ पदार्थ को कोई बुद्धिमान् काम में लगा ही नहीं सकता । इस प्रकार प्रयोज्य में निहित ( भले तत्काल वह प्रवृत्त नहीं हो ) शक्ति का निश्चय करके ही प्रयोजक उसे कार्य नियुक्त करता है, अतएव वह प्रयोज्य नियुक्ति के बाद तात्कालिक आत्मसाध्य क्रिया की सिद्धि के लिए अन्य अपेक्षित साधनों का विनियोग करके स्वयं प्रयोजक बन जाता है अर्थात् स्वातन्त्र्य का उपभोग करता है । उदासीन, आलसी या असमर्थ व्यक्ति को कर्ता नहीं बनाया जा सकता, अतः जिसमें स्वातंत्र्य की सम्भावना हो वही प्रयोज्य हो सकता है । इस पर आपत्ति हो सकती है कि जब प्रयोज्य कर्ता प्रयोजक हो सकता है तब अपने व्यापार में स्वतंत्र रूप से विवक्षित करणादि को प्रयोजित करने के फलस्वरूप प्रयोज्य कर्ता की भी हेतुसंज्ञा हो जायगी । तदनुसार 'गृहस्थ : सूपकारेण ( प्रयोज्य ) पाचयति' के सादृश्य पर 'सूपकारः ( प्रयोज्य > प्रयोजक ) स्थाल्या ( अधिकरण > विवक्षा से कर्ता > प्रयोज्य ) पाचयति' का अनिष्ट प्रयोग होने लगेगा । अतएव पूर्वपक्षी कहते हैं कि 'तत्प्रयोजको हेतुश्च' सूत्र में हेतु संज्ञा के द्वारा करणादि के प्रयोजक ( जो वस्तुतः प्रयोज्य कर्ता है ) हेतुसंज्ञा वारित समझनी चाहिए । इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि करणादि अपने व्यापार में स्वतंत्र रहने पर भी प्रधान व्यापार में परतंत्र ही रहते हैं । अतएव उन्हें मुख्य रूप से कर्तृसंज्ञा नहीं होती । प्रधान कर्ता के व्यापार से वे अभिभूत रहते हैं, जिससे उनकी स्वतंत्रता प्रकृष्ट नहीं होती । ध्यातव्य है कि प्रकृष्ट स्वातंत्र्य से युक्त पदार्थ को ही मुख्य कर्तृत्व होता है । निष्कर्षतः करणादि कर्ता होने पर भी प्रेषित नहीं किये जा सकते अर्थात् वे प्रयोज्य नहीं होते । दूसरी ओर, प्रयोज्य कर्ता प्रयोजक के द्वारा प्रेषित होता है तथा दूसरे साधनों का क्रियासिद्धि के लिए विनियोग करने के कारण प्रकृष्ट स्वातंत्र्य नहीं छोड़ता । इसीलिए वह कर्ता है । तदनुसार हम निष्कर्ष निकालते हैं कि ( १ ) मुख्य कर्ता ही प्रयोज्य हो सकता है । करणादि यदि कर्ता के रूप में विवक्षित हो भी जाय तो प्रकृष्ट स्वातंत्र्य के अभाव में प्रयोज्य नहीं होते । ( २ ) प्रकृष्ट स्वातंत्र्य धारण करने वाले कर्ता को प्रेषित करने वाला ही प्रयोजक कर्ता होता है, जिसे हेतु भी कहते हैं । हेतु ( प्रयोजक ) का विचार कर्ता के विचार के प्रसंग में उक्त 'हेतु' का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है । वाक्यपदीय में भी इसीलिए कर्तृनिरूपण के अनन्तर चार कारिकाओं में हेतु का विवेचन है ( ३।७।१२५-८ ) । भर्तृहरि ने हेतुसंज्ञा का लक्षण प्रथम कारिका में ही दिया है— १. 'सम्भावनात् क्रियासिद्धी कर्तृत्वेन समाश्रितः । क्रियायामात्मसाध्यायां साधनानां प्रयोजकः ' ॥ २. 'तस्मात्स्वतन्त्रस्य प्रयोजक इति करणादिप्रयोजकस्य नीयम्' । - वा० प० ३।७।१२२ हेतुसंज्ञाव्युदासे प्रयत - हेलाराज ३, पृ० ३२४
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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