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________________ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन (२) प्रकृति को कर्ता माननेवालों की मान्यता है कि जो विकार असत् है वह आत्मलाभ के लिए अभिमुख नहीं हो सकता। हम जानते हैं कि जन्म लेने का अर्थ स्वरूपलाभ के प्रति उन्मुखता ही है । अतः उस अभिमुखता के अभाव में विकार जनि-क्रिया का कर्ता नहीं होगा। स्वरूप की प्राप्ति ( जन्म-ग्रहण ) सदवस्थापन्न प्रकृति को ही हो सकती है। उत्तरावस्था में स्थित अपने दूसरे रूप की प्राप्ति के लिए वही अभिमुख भी हो सकती है। पूर्वावस्था और उत्तरावस्था में तात्त्विक भेद हैएक को प्रकृति और दूसरी को विकृति ( विकार ) कहते हैं। अत: विकार-रूप के लाभ के लिए प्रकृति में आभिमुख्य होने से वही ( प्रकृति ) कर्ता है । इसका भी उपपादन कई उदाहरणों से सम्भव है । सर्वप्रथम हम पतञ्जलि के 'अत्वं त्वं सम्पद्यते =त्वद्भवति' इस वचन को ले सकते हैं । यहाँ अयुष्मद्-रूप ( अत्वं ) प्रकृति है तथा युष्मदर्थ ( त्वं ) विकार है। क्रियापद पथमपुरुष में होने के कारण विकार से अन्वित नहीं है। अन्ततः प्रकृति-रूप ( अयुष्मदर्थ ) ही 'सम्पद्यते' क्रिया का कर्ता है। कभी-कभी एक ही उदाहरण की विभिन्न वृत्तियों ( forms ) में कभी प्रकृति को तो कभी विकार को कर्ता के रूप में निर्शित किया जाता है । जब विप्रत्यय का अर्थ-प्रदर्शन करने के लिए वाक्य बनाते हैं तब विकार का कर्तृत्व होता है'असङ्घो ब्राह्मणाः सङ्घो भवति' । यहाँ 'संघ' में विद्यमान एकवचन के आधार पर 'भवति' क्रिया प्रयुक्त हुई है । ब्राह्मण प्रकृति है तथा संघ विकृति, क्योंकि ब्राह्मणों से ही संघ बनेगा । तदनुसार विकृति-रूप संघ भवति' का कर्ता है । पुनः उपर्युक्त वाक्य को बदल कर वि-प्रत्यययुक्त प्रयोग दिखलाया जाता है ----'सङ्घीभवन्ति ब्राह्मणाः', तब प्रकृतिभूत ब्राह्मण से बहुवचनात्मक क्रिया का अन्वय होता है और ब्राह्मण कर्ता रहता है । इस प्रकार वृत्तिभेद से प्रकृति तथा विकार दोनों में पर्याय से कर्तृत्व देखा जाता है । यह विवक्षा की विचित्र रीति है। प्रकृति तथा विकृति दोनों के कर्तृत्व की सिद्धि के लिए भर्तृहरि को जन्म-क्रिया का विश्लेषण करना पड़ता है 'पूर्वामवस्थामजहत् संस्पृशन्धर्ममुत्तरम । सम्मूच्छित इवार्थात्मा जायमानोऽभिधीयते' ॥ -वा० ५० ३।७।११८ यह नहीं समझना चाहिए कि बौद्धिक सत्ता ( विवक्षा ) के संसार में भी सर्वथा अपूर्व वस्तु ही उत्पन्न होती है । इसके विपरीत तथ्य यह है कि पूर्व में स्थित कारणावस्था का सर्वथा परित्याग किये बिना ही जन्म होता है---इससे प्रकृति के कर्तृत्व की पुष्टि होती है । इसी प्रकार उत्तरावस्था-विशेष का संस्पर्श ( ग्रहण ) करते हुए पदार्थ १. पा० सू० १।४।१०८ पर भाष्य । २. द्रष्टव्य-वा०प० ३।७।११७ तथा उस पर हेलाराज । ३. 'वाक्ये सम्पद्यते कर्ता सखः च्व्यन्तस्य कम्यते । तो सपीभवन्तीति ब्राह्मणानां स्वतन्त्रता' ॥ -बा०प०७११९
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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