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________________ ११४ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन विकार्य कार्य भले ही असत् हो किन्तु जाति के रूप में तो अवश्य ही सत् है, क्योंकि जाति नित्य होती | अतः यह जाति साधनों का विनियोग करती है तथा व्यक्ति के रूप में जन्म लेती है । यह सत्य है कि जाति स्वयं उत्पत्ति विनाश के धर्मों से पृथक् है, तथापि उसका व्यक्तिरूप तो जन्म ग्रहण कर ही सकता है। तदनुसार कर्ता तथा उत्पन्न होनेवाले पदार्थ में कोई भेद नहीं - एक जातिरूप है तो दूसरा व्यक्तिरूप' । इस प्रकार कारण तथा कार्य ( बीज और अंकुर ) में भेद का सिद्धान्त रखकर भी 'अङ्कुरो जायते' की व्यवस्था की जा सकती है। उपर्युक्त विवेचन से जातिविषयक न्याय-वैशेषिक सिद्धान्त की पुष्टि की जा सकती है कि अंकुरत्व-जाति, नित्यरूप से वर्तमान होने के कारण, जन्म लेनेवाले ( अंकुर व्यक्ति ) पदार्थ की उत्पत्ति से पूर्व की असत्ता से सम्बद्ध समस्या का समाधान कर देती है । अंकुरत्व-जाति तथा अंकुर व्यक्ति एक-दूसरे के पूरक के रूप में रहकर उक्त वाक्य की व्यवस्था करते हैं । जाति में जन्यता नहीं, कर्तृत्व है तो उधर व्यक्ति में कर्तृत्व नहीं, जन्यता है । अतः कार्य-कारण में भेद रखें या अभेद – इन दोनों ही दशाओं में अंकुर जन्म की व्यवस्था सम्भव है । बीज अंकुर के रूप में विकृति होता है ( अभेद ) अथवा अंकुर - कार्यं नये रूप में उत्पन्न होता है ( भेद ); दोनों ही संगत हैं । दूसरे विकल्प में कार्य को जाति तथा व्यक्ति के रूप में विभक्त किया जाता है । कार्य-कारण का अभेद-दर्शन एक नयी समस्या उत्पन्न कर देता है । हम ऊपर बीज को कर्ता के रूप में दिखला चुके हैं। बीज प्रकृति है तथा अंकुर के रूप में विकृत होता है। बीज और अंकुर में अभेदाध्यवसाय करनेवाले पक्ष में यह प्रश्न होता है कि कर्तृत्व वास्तव में किस में रहता है - प्रकृति ( कारण ) में या विकृति ( कार्य ) में ? कुछ लोग कह सकते हैं कि अभेद होने पर भी जन्म का कर्ता केवल कार्य ही है, कारण नहीं, क्योंकि कारण तो सिद्ध पदार्थ है- पहले ही जन्म लेकर अब तक सत्तायुक्त हो चुका है । जन्म के द्वारा स्वरूप - लाभ करनेवाला पदार्थ तो कार्य ( विकृति- अंकुर ) ही है । इस पर भर्तृहरि निर्णय देते हैं कि जहाँ कार्यकारण भाव प्रकृति तथा विकृति के रूप में हो वहाँ दोनों में पर्याय से कर्तृत्व हो सकता है, प्रयोग-भेद अवश्य होगा 'विकारो जन्मनः कर्ता प्रकृतिर्वेति संशये । भिद्यते प्रतिपत्तॄणां दर्शनं लिङ्गदर्शनैः' ॥ - वा० प० ३।७।११४ अर्थात् जन्म - क्रिया का कर्ता प्रकृति है या विकृति - ऐसा संशय होने पर बोध करने वाले पुरुषों के सिद्धान्त अलग-अलग होते हैं, क्योंकि प्रयोग-भेद पर आश्रित हेतु भी अलग-अलग दिखलायी पड़ते हैं। इसमें स्थिति यह है कि प्रकृति और विकार के बीच सामानाधिकरण्य सम्बन्ध है, जैसे- ' क्षीरं दधि सम्पद्यते ' । ' बीजमङ्कुरो जायते' यह १. 'जातिरेव व्यक्त्यात्मना जायत इति व्यवहारात् जातिरूपेण कर्तृत्वं व्यक्तिरूपेण जन्यत्वम् – इत्यत्यन्तं व्यतिरेकाभावाज्जातिव्यक्त्योः सामानाधिकरण्यादुपपद्यत इत्यर्थः' । - हेलाराज ३, पृ० ३१६ 1
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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