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________________ कर्तृ-कारक तथा अभिनीत ) के अभिव्यंजन में 'कंसं घातयति' का प्रयोग सिद्ध होगा । इसी प्रसंग में वे आगे चलकर कहते हैं कि स्वतन्त्र का प्रयोजक यदि हेतु कर्ता है और इससे यदि प्रयोज्य में स्वतन्त्रता का अभाव होता है तो प्रयोजक कभी हेतु कहला ही नहीं सकता । अतः प्रयोज्य कर्ता की स्वतन्त्रता के कारण ही प्रयोजक का हेतुत्व उपपन्न होता है २ । तदनुसार इन्द्र का हेतु कर्तृत्व तभी माना जायगा जब कृष्ण (प्रयोज्य ) में भी स्वातन्त्र्य रहे । इसी का आरोप नाटय-शिक्षक ( हेतुकर्ता ) तथा कृष्ण की भूमिका धारण करनेवाले नट ( प्रयोज्यकर्ता ) पर भी हुआ है। इस प्रकार जैसे इनमें अभेददर्शन हुआ है, दोनों को समान स्तर पर देखा गया है उसी प्रकार प्रयोज्य कर्ता तथा उस कर्ता में भी समानता है जो बिना किसी प्रेरणा के स्वयं स्वतन्त्रतापूर्वक काम करता है । 'यज्ञदत्तः देवदत्तेन कारयति' तथा 'देवदत्तः करोति' इन दोनों वाक्यों में देवदत्त में समान रूप से स्वतन्त्रता है। ___ व्याकरणशास्त्र के त्रिमुनि के द्वारा निरूपित कर्तविषयक विचार करते समय आनुषंगिक रूप से भर्तृहरि की दो कारिकाओं का उद्धरण देकर कर्ता की स्वतन्त्रता के कारणों पर भी विचार किया गया। अब हम भर्तृहरि के एतद्विषयक अन्य विचारों की व्याख्या करें। अचेतन का कर्तृत्व ___ भर्तहरि ने कर्ता की स्वतन्त्रता की विशद व्याख्या की है, जिसमें कर्ता को अनेक शक्तियों से परिपूर्ण घोषित किया गया है। उक्त स्वतन्त्रता का उपयोग चेतन पदार्थ ही कर सकता है, अचेतन नहीं । किन्तु 'रथो गच्छति', 'नदी वहति', 'अग्निदहति', 'स्थाली पचति' इत्यादि उदाहरणों में हम अचेतन पदार्थों को कर्ता का काम करते देखते हैं। इनका प्रयोग किस प्रकार समाधेय है ? इन अचेतन पदार्थों के कर्तृत्व की पुष्टि भर्तृहरि निम्न कारिका में करते हैं 'धर्मरभ्युदितः शब्दे नियमो न तु वस्तुनि । कर्तुर्धर्मविवक्षागं शब्दात्कर्ता प्रतीयते ॥ -वा०प० ३।७।१०३ कर्ता की स्वतन्त्रता के वोधक जितने धर्मों का ऊपर उल्लेख हो चुका है; जैसेअन्य कारकों के पहले ही शक्तिलाभ करना, उन्हें प्रवृत्त करना इत्यादि-उनका यह १. तुल०--शब्दकौस्तुभ २, पृ० ३५७--'कसं घातयतीति तावदारोपः । ये हि कंसाद्यनुकारिणां नटानां व्याख्यानोपाध्यायाः ते कंसानुकारिणं नटं सामाजिकैः कंसबुद्धया गृहीतं तादृशेनैव वासुदेवेन घातयतीव । तथा च स्पष्ट आरोपः' । २. 'न वा सामान्यकृतत्वाद् हेतुतो ह्यविशिष्टम् । तथा स्वतन्त्रप्रयोजकत्वादप्रयोजक इति चेत् मुक्तसंशयेन तुल्यम्'। --३।१।२६ पर भाष्य तथा वार्तिक ३. 'अचेतनेषु तर्हि एवंविधकर्मकलापाभावात् कर्तृता न प्राप्नोति-इत्या -हेलाराज, काण३, पृ० ११५
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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