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________________ कर्तृ-कारक १०३ अपादान तथा सम्प्रदान कारकों की कर्तृत्व-विवक्षा पर आशंका प्रकट करके भी अन्त में कात्यायन तथा पतञ्जलि यह स्वीकार करते हैं कि किसी भी कारक की स्वतन्त्रता और परतन्त्रता पर्याय-रूप में वाक्य-प्रयोग पर निर्भर करती है। किसीकिसी वाक्य में अपादान-कारक को भी कर्ता के पर्याय के रूप में देखा जा सकता है; जैसे -- बलाहको विद्योतते ( मेघ चमकता है )। यह वाक्य-प्रयोग मेघ तथा विद्युत् की अभेद-विवक्षा पर आश्रित है ( कैयट )। जब निःसरण-क्रिया के अंग के रूप में विद्योतन विवक्षित होकर मेघ और विद्युत् का अन्तर दिखलाना अभिमत हो तब 'बलाहकाद् विद्योतते' प्रयोग होता है। इसके अतिरिक्त अधिकरणत्व-विवक्षा से 'बलाहके विद्योतते' प्रयोग भी होता है, जिसमें स्थिति-क्रिया के अंग के रूप में द्योतनक्रिया का प्रदर्शन इष्ट है अर्थात् मेघ में स्थित होकर ज्योतिःस्वरूप विद्युत् चमक इतना होने पर भी पतञ्जलि यह स्वीकार करते हैं कि अपादानादि संज्ञाओं की प्रसिद्धि कर्तृरूप में नहीं है । यद्यपि इसके लिए अन्य कारण हैं तथापि भाष्यकार यह युक्ति देते हैं कि कारक-प्रकरण में सर्वत्र स्वातन्त्र्य तथा पारतन्त्र्य का पर्याय होता है और दोनों की प्राप्ति होने पर परवर्तिनी कर्त संज्ञा अपादानादि संज्ञाओं की स्वातन्त्र्यविवक्षा कभी नहीं होने देती। इन संज्ञाओं के स्वतन्त्र व्यापार की अविवक्षा के कारण ही सम्भवतः अष्टाध्यायी में विप्रतिषेध-परिभाषा का ध्यान रखकर इन्हें कारकपक्र के आरम्भ में स्थान दिया गया है, जिससे ये संज्ञाएँ संज्ञान्तर के रूप में विवक्षित होने का साहस न कर सके । 'ग्रामादागच्छति' का 'ग्राम आगच्छति' नहीं हो सकता और न ही 'ब्राह्मणाय ददाति' की विवक्षा 'ब्राह्मणो ददाति' के रूप में हो सकती है--यह हम पिछले अध्याय में देख चुके हैं । यदि प्रयोग किया जाय तो बिलकुल नये अर्थ की प्रतीति होगी। जब तक स्वयं व्यापार का संचालन नहीं किया जाता तब तक किसी पदार्थ का उपयोग प्रधान क्रिया के व्यापार में नहीं हो सकता कि वह कर्ता बन सके। अतएव सम्प्रदान तथा अपादान के व्यापार में ( जो शब्द के द्वारा वाच्य नहीं ) धातु की वृत्ति नहीं होती। ____ अब पतञ्जलि के समक्ष दूसरा प्रश्न उपस्थित होता है । रन्धनपात्र को वे ग्रहणक्रिया तथा धारण-क्रिया से सम्बद्ध मानकर स्वतन्त्र अर्थात् कर्ता सिद्ध कर देते हैं। तब वह अपने अधिकरणत्व की अधिकार-रक्षा के लिए परतन्त्र कहाँ रहेगा? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि पाक्य वस्तु के प्रक्षालन तथा परिचालन (चलाना) की क्रिया की अपेक्षा से रन्धन-पात्र परतन्त्र होगा, क्योंकि इन क्रियाओं का वह आधार है। किन्तु यह उत्तर युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि कोई व्यक्ति इसलिए रन्धनपात्र का उपादान नहीं करता कि मैं इसमें प्रक्षालन या परिचालन करूँगा। सभी लोग यही सोच १. द्रष्टव्य-कैयट : प्रदीप २, पृ० २४४ । २. 'स्वव्यापारानुष्ठानमन्तरेण प्रधानक्रियायामुपयोगाभावात् । .....'शब्दशक्तिस्वाभाध्याच्चापादानसम्प्रदानव्यापारे धातुर्न वर्तते' । -कैयट, वहीं
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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