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________________ कारक तथा विभक्ति किन्तु प्रयुक्त नहीं होते --विवक्षित रूप उन्हें उखाड़ फेंकने की स्थिति में रहा है। अन्त में, बहुत से स्थलों में विवक्षित तथा मूल रूप दोनों विकल्प की स्थिति में प्रयुक्त होते हैं । किन्तु यह ध्यान रखना है कि विभक्ति-भेद से वाक्यार्थ में अत्यन्त सूक्ष्म ही सही, भेद तो होता ही है। हम ऊपर देख चुके हैं कि 'ग्रामं ग्रामाय ग्रामे वा गच्छति' बिलकुल पर्याय ही नहीं हैं । 'स्थाली पचति' तथा 'स्थाल्या पचति' में स्थाली की परस्पर भिन्न शक्तियाँ उद्भूत होती हैं। कारक की विवक्षाओं को हम मुख्यतः ४ वर्गों में रख सकते हैं ( क ) सभी कारकों की कर्त-विवक्षा---ओदनः पच्यते स्वयमेव ( कर्म )। असिश्छिनत्ति ( करण ) । स्थाली पचति ( अधिकरण ) । सम्प्रदान तथा अपादान की कर्तृविवक्षा प्रसिद्ध नहीं है । अपादान का फिर भी एक उदाहरण मिलता है-बलाहको ( मेघः ) विद्योतते । ( ख ) कर्म के रूप में विवक्षा-अपादानादि से अविवक्षित पदार्थों की कर्मविवक्षा होती है, जिसे अकथित कर्म कहते हैं । यथा-गां दोग्धि पयः ( अपादान ) । माणवकं धर्म ब्रते ( सम्प्रदान )। (ग ) सम्बन्ध-विवक्षा-अनेक कारकों की अपने वर्ग में अविवक्षा होने तथा उनमें सम्बन्धमात्र की विवक्षा होने पर षष्ठी विभक्ति होती है । यथा--मातुः स्मरति । पशूनामीष्टे । (घ ) सभी कारकों की व्यत्यय-विवक्षा---इस वर्ग में पाणिनीय सूत्रों के अनुशासन से अधिक शिष्टों के प्रयोग ही नियायक तत्त्व हैं । कुछ शिष्ट प्रयोग इस प्रकार हैं-स्कन्धेन भारं वहति । स्कन्ध में अधिकरण के स्थान पर करण की विवक्षा करके तृतीया हुई है। कालान्तर में यही एकमात्र शुद्ध प्रयोग रह गया तथा अधिकरण ही अशुद्ध हो गया। इसका समर्थन महाकवियों के प्रयोगों से भी होता है १. 'यश्चाप्सरोविभ्रममण्डनानां सम्पादयित्रीं शिखरैबिति'। -कुमार० ११४ २. 'मध्येन सा वेदिविलग्नमध्या वलित्रयं चारु बभार बाला' ।—कुमार० १।३९ ३. 'गुणानुरागेण शिरोभिरुह्यते नराधिपैर्माल्यमिवास्य शासनम्' । -किरात० १२१ इन उदाहरणों में गति या प्रापण अर्थ नहीं है कि करण-कारक का अवकाश हो । 'धारण करना' अर्थ ही सर्वत्र अभिप्रेत है । अतः अधिकरण की ही प्राप्ति थी वही वास्तव में होना चाहिए । किन्तु करण के रूप में शिष्टों की विवक्षा होती है । इसी प्रकार वास्तविक करण के स्थान में विवक्षा से शिष्टों ने इन उदाहरणों में अधिकरण नियत कर दिया है१. 'गृहीत इव केशेष मृत्युन' धर्ममाचरेत् । -पंचतन्त्र । २. 'रश्मिष्विवादाय नगेन्द्रसक्तां निवर्तयामास नृपस्य दृष्टिम्'। -रघु० २।२८ १. पं० चारुदेव शास्त्री, प्रस्तावतरङ्गिणी, पृ० १९५-६ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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