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________________ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन भी अविवक्षा होती है; जैसे-'अलोमिका एडका' । अनुदृश कन्या । यहाँ अल्परोम तथा अल्प उदर तथ्य हैं, किन्तु नञ् का प्रयोग करके उनकी अविवक्षा की गयी है। इसी प्रकार असत् पदार्थ की भी विवक्षा होती है; जैसे --समुद्रः कुण्डिका । समुद्र का पार करना कुण्ड को पार करने के समान सरल है अथवा कुण्ड में समुद्र के समान बहुत जल है । समुद्र तथा कुण्ड का सामानाधिकरण्य असत् हैं, किन्तु विवक्षा के बल से उक्त अर्थों में इसकी उपपत्ति मानी गयी है । पतञ्जलि ने ये उदाहरण अध्रुवता की अविवक्षा के प्रसंग में दिये हैं । उक्त विवक्षा कोई आश्चर्य नहीं, किन्तु लौकिक सत्य है। 'क्तस्य च वर्तमाने' सूत्र की व्याख्या में इन्हीं पंक्तियों को पतञ्जलि ने दुहराया है। कर्मादि की अविवक्षा को 'शेष' कहते हैं। 'छात्रो हसति' में छात्र का कर्तत्व एक तथ्य है, किन्तु वही अविवक्षित होकर शेष-विवक्षा से 'छात्रस्य हसितम्' में षष्ठी ग्रहण करता है। इसी प्रकार 'मयुरो नृत्यति--मयुरस्य नृत्तम्' 'कोकिलो व्याहरतिकोकिलस्य व्याहृतम्'। ____ भर्तृहरि ने साधन-समुद्देश के दूसरे ही श्लोक में विवक्षा की शक्ति का विशद विवेचन किया है 'शक्तिमात्रासमूहस्य विश्वस्यानेकधर्मणः। सर्वदा सर्वथा भावात् क्वचित् किञ्चिद् विवक्ष्यते' ॥-वाक्यपदीय ३७।२ अर्थात् अनेक धर्मों से युक्त तथा शक्तियों के समुदाय-स्वरूप विश्व की सब समय सभी प्रकार से सत्ता है, किन्तु एक समय में एक ही धर्म तथा शक्ति विवक्षित होती है। अतएव एक ही द्रव्य में कालभेद से भिन्न-भिन्न शक्तियों की विवक्षा हो सकती है। वे पुनः कहते हैं कि कारक का व्यवहार बुद्धि की अवस्था पर आश्रित है । जब बु। किसी वस्तु का निरूपण कर लेती है तभी वह ( वस्तु ) शब्द का विषय बनती है। द्धि उसे जिस रूप में निरूपित करेगी, उसका वही रूप शब्द में प्रकट होगा। केवल सत् पदार्थ का ही निरूपण बुद्धि के द्वारा हो, ऐसी बात नहीं-असत् की भी कल्पना बुद्धि का व्यापार है । भविष्यत्काल में सम्पन्न होने वाले कार्यों की पूर्वकल्पना हम कर लेते हैं, यद्यपि वे कार्य वर्तमान में निरूपणीय नहीं है। अतः बुद्धि के द्वारा निरूपण एवं कल्पना का पूर्ण योगदान भाषा-प्रयोग के क्षेत्र में होता है । भर्तृहरि के ही शब्दों में-- 'साधनं व्यवहारश्च बुद्धयवस्थानिबन्धनः। सन्नसन्वार्थरूपेषु भेदो बुद्धया प्रकल्प्यते' ॥ -वा० प० ३।७।३ 'स्थाली पचति' में पतली ( स्थाली ) होने के कारण पाकक्रिया में कर्ता के नियोग की अपेक्षा नहीं रखने वाली स्थाली स्वतन्त्र रूप से विवक्षित होने के कारण कर्ता है, तो 'स्थाल्या पचति' में इन्धन द्वारा उपकार की अपेक्षा नहीं रखने के कारण १. महाभाष्य २, पृ० २४९ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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