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________________ ९० संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन लेकर कारकविभक्ति के कारण ( = अस्ति-क्रिया के कर्ता ) कमण्डलु में प्रथमा का उपपादन करते हैं' । उक्त विवेचन सम्यक् प्रकार से यह स्पष्ट करता है कि कारक तथा विभक्ति दो भिन्न पदार्थ हैं । विभक्ति कारक तथा उपपद दोनों प्रकार के सम्बन्धों को व्यक्त करती है । अत: विभक्ति का कार्यक्षेत्र कारक की अपेक्षा विस्तृत है । कारक सूक्ष्म तथा अव्यक्त सम्बन्ध के रूप में द्रव्य की वह शक्ति है जिसे विभक्ति व्यक्त करती है । इस प्रकार दोनों के मध्य व्यङ्ग्य-व्यंजकभाव है । कारक व्यंग्य है तो विभक्ति व्यंजक | किन्तु इस विषय में नियम नहीं है कि विभक्ति एकमात्र कारक को ही व्यक्त करती है अथवा कारक केवल विभक्ति से ही व्यक्त होता है । जहाँ तक व्यंग्य - नियम ( विभक्तिः कारकमेव व्यनक्ति - व्यंग्यगत नियम ) का प्रश्न है, हम इसका निरूपण कर चुके हैं कि विभक्ति न केवल कारक को व्यक्त करती है, प्रत्युत उपपद-सम्बन्ध भी उसी के द्वारा व्यक्त होता है । इतना ही नहीं, कात्यायन ने 'बहुषु बहुवचनम् ' ( पा० १।४।२१ ) के अन्तर्गत श्लोकवार्तिक दिया है ―――――――― 'सुषां कर्मादयोऽप्यर्थाः संख्या चैव तथा तिङाम् । प्रसिद्धो नियमस्तत्र नियम: प्रकृतेषु च ' ॥ तदनुसार विभक्ति का अर्थ एक ओर तो कर्मत्वादि है तो दूसरी ओर एकत्वादि संख्या भी उससे प्रकट होती है । तथापि यह कहना उचित है कि विभक्ति का अर्थ एकत्वादि संख्या होने पर भी उसमें कर्मत्वादि निमित्त रहते हैं । हम यह जान चुके हैं कि विभक्ति एक प्रकार का प्रत्यय है, जो प्रातिपदिक में लगाया जाता है । इससे कर्मत्वादि कारक तथा संख्या- दोनों व्यक्त होते हैं । यथा 'अम्' विभक्ति से कर्मत्वादि सम्बन्ध तथा एकत्व भी प्रकट होता है । यदि वाक्य में दिखलायें तो कारक शक्ति सुस्पष्ट हो जायेगी । जैसे - चन्द्रं पश्य । इसमें अम् विभक्ति कर्मकारक मात्र तथा एकवचन की व्यंजिका है। कारकों के विषय में तो दृढ़ नियम नहीं है कि कर्म में द्वितीया ही होगी या द्वितीया कर्म में ही होगी, किन्तु एकत्वादि संख्या इसका सम्यक् पालन करती हैं - एकवचन केवल एक का ही द्योतक है, दो या बहुत का नहीं " । कहीं-कहीं इसका भी अपवाद मिलता है, जैसे- सम्मानार्थ या आत्मद्योतनार्थं एक ही व्यक्ति को बहुवचन में रखना । भट्टोजिदीक्षित प्रभृति नव्य वैयाकरण न्यायानुमोदित शब्दावली में विभक्तियों अर्थ रखते हैं । उनके अनुसार - आश्रय, अवधि, उद्देश्य, सम्बन्ध या शक्ति - ये ही १. वही २, पृ० ४८९ । २. 'एकत्वादिष्वपि वै विभक्त्यर्थेषु अवश्यं कर्मादयो निमित्तत्वेनोपादेया: - कर्मण एकत्वे, कर्मणो द्वित्वे, कर्मणो बहुत्व इति' । - भाष्य २, पृ० २३६ ३. भाष्य २, पृ० २२९ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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