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कारक तथा विभक्ति
गमन रूप क्रियान्तर का बोध होता है । अतः गौ में सप्तमी हुई है, उसके विशेषण दोहन-क्रिया में भी सप्तमी है ( यस्य च भावेन भावलक्षणम् २।३।३७ ) । इसे 'भावे सप्तमी' या 'सति सप्तमी' भी कहते हैं। इसमें लक्ष्यलक्षणभाव की विवक्षा होती है। संस्कृत-भाषा की अच्छी शैली का निर्माण इसमें निहित है।
उपर्युक्त स्थिति में जब अनादर का भाव रहे तब षष्ठी विभक्ति भी होती है। यथा-रुदति परिजने ( रुदतो वा तस्य ) प्रावाजीत् ( परिवार के लोग रोते रह गये, उनकी उपेक्षा करके उसने संन्यास ले लिया )। यहाँ संन्यास लेनेवाले के द्वारा प्रियजनों के स्नेह के तिरस्कार का भाव है ( २।३।३८ )।
(ङ) स्वामी, ईश्वर, अधिपति, दायाद, साक्षी, प्रतिभू, प्रसूत-इन शब्दों के योग में भी षष्ठी तथा सप्तमी दोनों विभक्तियाँ विकल्पित हैं—गवां ( गोषु वा ) स्वामी । गवामधिपतिः, गोष्वीश्वरः इत्यादि ।
( च ) आसेवा ( तत्परता, किसी काम में निरन्तर लगना ) का अर्थबोध होने पर आयुक्त ( व्यापारित ) तथा कुशल शब्दों के योग में सप्तमी तथा षष्ठी भी होती है । यथा-धनी भोगेषु ( भोगानां वा ) आयुक्तः ( धनी व्यक्ति विषयों में निरन्तर लगा हुआ है ) । छात्रः पाठे ( पाठस्य वा ) कुशलः। आसेवा का अर्थ नहीं होने पर केवल सप्तमी होती है-शकटे गौः आयुक्तः ( ईषद् युक्तः, बद्धः )। अधिकरण के कारण यह कारकविभक्ति है ( काशिका २।३।४० )।
(छ) जब जाति, गुण, नाम या क्रिया के द्वारा समुदाय में से एक अंश को पृथक किया जाय तो उस समुदायवाचक शब्द में सप्तमी या षष्ठी विभक्ति होती है । इसे निर्धारण कहते हैं । यथा-(१) जाति-नृषु नृणां वा क्षत्रियः शूरतमः । (२) गुण-गोषु गवां वा कृष्णा बहुक्षीरा। ( ३ ) नाम- छात्रेषु छात्राणां वा माधवो निपुणतमः । ( ४ ) क्रिया- अध्वगेषु अध्वगानां वा धावन्तः शीघ्रतमाः ( यतश्च निर्धारणम् २।३।४१ )।
( ज ) प्रसित ( तत्पर ) तथा उत्सुक शब्दों के योग में तृतीया तथा सप्तमी विभक्तियाँ विकल्पित हैं—विद्यायां ( विद्यया वा ) प्रसितः, उत्सुकः । (पा० २।३।४४ )।
( झ ) जब दो कारक-शक्तियों के बीच में काल या अध्व का वाचक शब्द हो तो उसमें सप्तमी या पंचमी विभक्ति होती है । यथा--अद्य भुक्त्वा सप्ताहे ( सप्ताहाद् वा ) भोक्ता । कालवाचक सप्ताह-शब्द यहाँ दो कर्तृशक्तियों के मध्य है। आज के भोजन तथा सप्ताहान्तर के भोजन की कर्तशक्तियाँ पृथक हैं, यद्यपि भोजनकर्ता समान है । एक शक्ति आजवाली भोजन-क्रिया के प्रति साधन है तो दूसरी शक्ति सप्ताहान्तर की भोजन-क्रिया का साधन है । दोनों के बीच कालवाचक सप्ताह शब्द है। इसी प्रकार 'इहस्थोऽयं क्रोशे क्रोशाद्वा लक्ष्यं विध्यति'- इसमें कर्तशक्ति ( यहां रहनेवाला पुरुष ) तथा कर्मशक्ति ( लक्ष्य ) के बीच में देश है, जिसका वाचक क्रोश-शब्द