SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारक तथा विभक्ति ८५ करती है' । 'राज्ञः पुरुषः' में दो द्रव्यों का सम्बन्ध अश्रुत दान-क्रिया के कारण हुआ है । यह उपपदविभक्ति का विषय है। दूसरी ओर जो सम्बन्ध श्रूयमाण क्रिया का विषय होता है उसमें विभिन्न कारकों की प्रवृत्ति होती है। यह दूसरी बात है कि तत्तत् कारकों की अविवक्षा के कारण शेष-षष्ठी हो जाती है ।। ___ सम्बन्ध का बोध करानेवाली शेप-पष्ठी के भेदों की कोई सीमा नहीं, क्योंकि संसार में अनेक प्रकार के सम्बन्ध हो सकते हैं। भरतमल्लिक ने अपने कारकोल्लास में प्रायः आठ सम्बन्धों की गणना की है (१) नृपस्य धनम् -स्वस्वामिभाव । ( २ ) हरेर्वदनम्-अवयवावय विभाव । ( ३ ) अध्यापकस्य व्याख्यानम् -वाच्यवाचकभाव । ( ४ ) गङ्गाया जलम्-आधाराधेयभाव । ( ५ ) पितस्तनयः-योनि( जन्य )सम्बन्ध । ( ६ ) भट्टस्य शिष्य:विद्या-सम्बन्ध । (७) अश्वस्य घासः-भक्ष्यभक्षकभावः। (८) वस्त्रस्य तन्तु:कार्यकारणभाव । प्रकारान्तर से संयोग तथा समवाय नाम के दो सम्बन्ध न्यायशास्त्र में स्वीकृत हैं जिनके उदाहरण होंगे-राज्ञो धनम् । पुष्पाणां गन्धः । पतंजलि ने 'षष्ठी स्थानेयोगा' (१।१।४९ ) की व्याख्या में कहा है कि षष्ठीविभक्ति के एक सौ एक अर्थ होते हैं, जो षष्ठी विभक्ति के उच्चारणमात्र से प्राप्त हो जाते हैं । इसीलिए पाणिनीय सूत्रों में नियम किया गया है कि 'स्थाने' के अर्थ में ही उसका ग्रहण हो, अन्य अर्थों में नहीं"। ! ( ख ) हेतु-शब्द के प्रयोग में षष्ठी होती है-अल्पस्य हेतोः । (ग ) तुल्यवाचक शब्दों के योग में तृतीया या षष्ठी होती है। इसके उदाहरण तृतीया में दिये जा चुके हैं । तुला और उपमा शब्दों के योग में केवल षष्ठी ही होती है-'रामस्य तुला उपमा वा नास्ति' (पा० २।३।७२ ) । 'तुलां यदारोहति दन्तवाससा' ( कुमार० ५।३४), 'स्फुटोपमं भूतिसितेन शम्भुना' ( शिशु० १।४) इत्यादि में गम्यमान 'सह' के अर्थ में तृतीया हुई है । (घ ) कई स्थितियों में सप्तमी विभक्ति के साथ षष्ठी का विकल्प होता है, जिनका निर्देश सप्तमी में ही करना समुचित है। १. 'द्रव्याणां हि सिद्धस्वभावानामयः शलाकाकल्पानां परस्परसम्बन्धाभावात् क्रियाकृत एव सः । क्रिया हि निःश्रयणीव द्रव्याण्युपश्लेषयति' । -हेलाराज ३, पृ० ३५५ २. 'श्रूयमाणक्रियाविषयस्तु सम्बन्धः कारकभेद एव'। --वही, पृ० ३५६ ३. 'एवं मातुः स्मरति, न माषाणामश्नीयात्, सर्पिषो जानीते इत्यादौ कर्मादिकारकभेद एवाविवक्षिततद्रूपः शेष इत्युक्तम्'। -वही ४. प्रकाशन संस्कृत साहित्य परिषद्, कलकत्ता, १९२४ । ५. 'एकशतं षष्ठ्यर्था यावन्तो वा ते सर्वे षष्ठ्यामुच्चारितायां प्राप्नुवन्ति' । ___-- महाभाष्य ( कीलहॉर्न संस्करण ), पृ० ११८
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy