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________________ प्राकृत 37 प्राकृत के प्राचीन बोली विभाग वस्तुतः बुद्ध और महावीर के समय से प्राकृत का काल आरम्भ होता है और यह काल साहित्यिक दृष्टि से विद्यापति और ज्ञानेश्वर आदि के नव्य भारतीय आर्य भाषाओं के उद्भव काल के 4, 5 सौ वर्ष पहले ही समाप्त हो चुका था । इसी को भाषा वैज्ञानिकों ने 'मध्य भारतीय आर्यभाषा काल' कह कर पुकारा है। इसके बाद 'नव्य भारतीय आर्यभाषा काल' का उद्भव होता है । इस तरह प्राकृत काल लगभग 1500 (पन्द्रह सौ ) साल तक भारत के इस विशाल भू-भाग में प्रचलित रहा। इसी प्राकृत के परिवर्तित रूप अपभ्रंश के बाद नव्य भारतीय आर्य भाषाएं विभिन्न रूपों में, विभिन्न शाखाओं में दृष्टिगत होने लगीं। भाषा का यह संक्रमण काल अपनी लम्बी अवधि के बाद इस रूप में आजकल दृष्टिगत होती है। पूर्वी भारत में बौद्ध और जैन धर्म ने लोक प्रचलित जनता की भाषा में अपना उपदेश दिया था जिसका नाम प्राकृत पड़ा। यह भाषा संस्कृत का प्रभाव पूर्वी भारत से हटाने लगी । बुद्ध और महावीर के पहले आर्यों की शिष्ट भाषा संस्कृत थी । यह समाज के परिष्कृत लोगों की बुद्धि-विलास के कार्यों में ही व्यवहृत होती थी। दैनंदिन कृत्यों से अब इसका नाता टूट चला था। इन धर्मों के उत्थान के साथ-साथ प्राकृत भाषा भी शनैः-शनैः महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने लगी। इसमें भी आगे चलकर सामान्य और विशेष भाषा का अन्तर हो चला। प्राचीनतम प्राकृत साहित्य की भाषा के स्वरूप का ज्ञान ई० पू० 500 शताब्दी से होने लगता है । परम्परा के अनुसार बुद्ध के उपदेश भिन्न-भिन्न विहारों में, मठों में, भिक्षुओं की स्मृति में संचित थे । ये भिक्षुगण भी भिन्न-भिन्न प्रान्तों के निवासी थे । अवन्ति, कोशाम्बी, कन्नौज, सांकाश्य, मथुरा और वहां से आने वाले भिक्षुओं की भाषा भी भिन्न-भिन्न होगी । उत्तर और पश्चिम की बोलियां पूर्व से अवश्य भिन्न रही होंगी। विनय पिटक का जो संकलन किया गया होगा उसमें विभिन्न भाषा-भाषी
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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