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________________ त्रयोदश-अघ्याय वाक्य-रचना पीछे हमने वाक्य रचना के एक एक अवयव (पद और पदमात्र) पर विचार किया है। वस्तुतः किसी भाषा का व्याकरण दो भागों में विभक्त किया जाता है-एक है रूप-रचना और दूसरा है वाक्य-रचना। वाक्य-रचना में शब्दों तथा सविभक्तिक पदों की वाक्यगत संयोजना होती है। प्रा० भा० आ० की वाक्य-रचना विशेष जटिल नहीं होती। इसमें पदों का पारस्परिक सम्बन्ध विभक्तियों द्वारा व्यक्त किया जाता है। हिन्दी आदि आधुनिक न० भा० आ० भाषाओं के वाक्यों में पदों का स्थान निश्चित है। संस्कृत में ऐसा नहीं है। इसमें वाक्यगत पदों को विविध तरीके से प्रयुक्त कर सकते हैं सः धावन्तं घोटकम् अश्यत्, सोऽपश्यत् धावन्तं घोटकं, सः घोटकं धावन्तम् अश्यत्, अपश्यत् धावन्तं घोटकं सः । भाषा में इतनी लचक होने पर भी संस्कृत में रूप-रचना की पद्धति बड़ी जटिल है। इसका निश्चित क्रिया-विधान तथा उसके लिये कारकों का निश्चित विभक्ति-प्रयोग भाषा को जटिलता की ओर ले जाता है। पालि और प्राकृत में संस्कृत की वाक्य-रचना की परम्परा बहुत कुछ सुरक्षित रही। अपभ्रंश काल में सुबन्त आदि के लुप्त हो जाने से निर्विभक्तिक पदों का प्रयोग बढ़ चला, कारक चिहों का द्योतन परसर्ग करने लगे। भाषा की प्रवृत्ति संश्लिष्टता से विश्लिष्टता की ओर बढ़ने लगी और न० भा० आ० के काल आते आते संस्कृत वाक्य-रचना का पूरा गुणात्मक परिवर्तन हो गया। परसर्गों का प्रयोग, सर्वनामों के अत्यन्त विकसित और परिवर्तित
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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