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________________ क्रियापद 391 कल्पना की जा सकती है। या जैसा कि टर्नर ने ह की व्युत्पत्ति दी है वह भी तर्कसंगत प्रतीत होता है। प्रा० भा० आ० स्य > स्स > स और इसी से ह का होना स्वाभाविक है। डॉ० सुकुमार सेन ने इस पर कई तरीके से विचार किया है। (i) प्रा० भा० आo 'स्य' का प्रयोग दोनों प्रकार की धातुओं में होता था-(क) अनिट् (ख) सेट् । अनिट् धातुओं में स्य का प्रयोग अ के अतिरिक्त कोई स्वर या व्यंजन के रहने पर होता था। म० भा० आ० में अनिट् धातुओं के रूपों का प्रत्यय, उन अनिट् रूपों के लिये प्रयुक्त होने लगा जो कि प्रा० भा० आ० में सेट् धातुयें थीं। इस प्रकार (महा०) कषामि, पा० कस्सामि <* करस्यामि करिष्यामि। अशो०-होसामि, पा० हेस्सामि, प्राo-होस्सामि <* भइष्य, * भोष्य < भविष्य । (ii) बहुत पुराकाल से ही कुछ बोलियों के रूप थे जिनमें कि ह प्रत्यय लगा रहता था। वही अपभ्रंश काल में प्रभावशाली हो गया। यह संभवतः भारोपीय प्रत्यय है-*सो-प्रा० भा० आ० स-। इसकी उत्पत्ति संभवतः अशोक कालीन पूर्वीय मध्य की बोली में हुई थी। ये दोनों बोलियों से सम्बन्धित हैं और दोनों अन्य पु० ब० व० के हैं:-(देलही तोपरा)-होहंति, (दे० तो० आदि) दाहति । (iii) इस प्रत्यय का आधार इस प्रकार माना जा सकता है-(इ) स (स) इ.-इहि, यह संभवतः इससे विकसित हुआ है->. (इ) ष्य - >* इसिय-(सम्प्रसारण से) >-इसि -> इहि;। विहसिति, भेसिति वि-हर-; भेसिति < Vभू; एसिति < इ। (iv) जैसा कि पहले लिखा जा चुका है वैयाकरणों के अनुसार आज्ञार्थ भविष्य का रूप भी परवर्ती प्राकृत और अपभ्रंश में बना-होज्जाही, होज्जिही। (v) भविष्यत्काल के रूप का अन्तिम रूप वर्तमान काल की तरह होता है।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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