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________________ 380 हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि हुआ है। अपभ्रंश में वर्तमान तथा आज्ञा के म० पु० ब० व० के रूप आपस में घुल मिल गये हैं। दोनों जगह अह तथा अहु वाले रूप पाये जाते हैं-जाणह, पुच्छह, पुच्छहु, इच्छह, इच्छहु। इसी म० पु० ब० व० के अह अहु से न० भा० आ० के रूप विकसित हुए हैं। आज्ञा हि०-ओ-चलो, गुज०-मारवाड़ी-ओ (पढ़ो), व्रज, अवधी-उ-करु। 5. अन्य पुरुष ए० व० अन्य पु० ए० व० में अइ या इ का चिह पाया जाता है। अइ म० भा० आ० का चिह है जो कि प्रा० भा० आ० प्र० पु० ए० व० ति प्रत्यय (पठति, गच्छति) से विकसित हुआ है। अइ या इ की सत्ता प्राकृत और अपभ्रंश से होते हुए पुरानी राजस्थानी आदि में भी पायी जाती है। अपभ्रंश में इ या एइ रूप के साथ साथ शून्य या अ वाले रूप भी पाये जाते हैं। परवर्ती अपभ्रंश में इसका आधिक्य है। उक्तिव्यक्तिप्रकरण और कीर्तिलता में इसके रूप बहुत पाये जाते हैं। लक्ष्मीधर48 ने शौरसेनी की तरह अपभ्रंश में भी दि प्रत्यय का विधान किया है होइ, हवइ, होदि, हवदि इत्यादि। पुरानी राजस्थानी में अइ का उदाहरण निति काठ षाई करइ, राती वाहि निति उतरइ (कन्हड दे प्रबन्ध 1,114)। पुरानी अवधी सब को होइ निबाह, बहइ न हाथु दहइ रिसि छाती (तुलसी)-अइ > ए रूप भी कीर्तिलता में पाया जाता है : काहू काहू अइसनओ संगत करे (कीर्ति० 34) ए वाले रूपों का विकास अइ वाले रूपों से ही हुआ है:-°ए < अइ < ति।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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