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________________ 378 हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि पिशेल (8455) ने उत्तम पुरुष ब० व० हुँ को समस्या माना है। उसने सुझाव दिया है कि इसका संबन्ध अपादान कारक ब० व० चिह हुँ से जोड़ना चाहिये। डॉ० तगारे ने उ० पु० ब० व० अहुँ की व्युत्पत्ति के विषय में अपना नवीन मत दिया है। अपभ्रंश पद रचना में स्वर+स्म+स्वर= स्वर+ह+सानुनासिक स्वर-उदाहरण तस्मात् > तहाँ, तस्मिन् > तहिं रूप देख सकते हैं। इस प्रकार हम अहुँ का संबंध प्रा० भा० आ० रूप उत्तम पुरुष वाचक सर्वनाम कर्ता ब० व० अस्माक से जोड़ सकते हैं। अहुँ का अनुनासिक तत्व उत्तम पुरुष ए० व० अउँ का प्रभाव है। यही अहु न० भा० आ० के उ० पु० ब० व० की उत्पत्ति के जानने का साधन है-उदाहरण महा०-ओ, उँ, सिन्धी-ऊँ नेपाली (अ) उँ, मैथिली, बंगाली ओ आदि। हिन्दी में वर्तमान इच्छार्थक उत्तम पु० ब० व० में ऐं (हि० चलें) रूप पाये जाते हैं। इसकी व्युत्पत्ति संदिग्ध है। डॉ० भोलाशंकर व्यास43 ने इसका विकास इस प्रकार माना है प्रथम पु० ब० व० चलहिँ > चलइँ > चलें। डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी+4 अउँ तथा म० पु० ब० व० * अह का सम्मिश्रण मानते हैं-कुर्मः >* करामः >* करउँ (उत्तम पु० ब० व०) तथा म० पु० ब० व० * करथ > करह, के एक दूसरे से परस्पर प्रभावित होने से * करउँ + करह से दोनों में करहु रूप हो गया। म० पु० ब० व० तथा उ० पु० ब० व० एक सा है। मध्यम पु० ब० व० में * करह रूप होना चाहिये तथा उत्तम पु० ब० व० में * करउँ । 3. मध्यम पुरुष ए० व० म० पु० ए० व० वर्तमान काल अपभ्रंश में समाप्ति सूचक-सि के साथ हि भी चलता है (पिशेल 8264), मरहि <* मरसि < म्रियसे, रुअहि < वैदिक रुवसि < रोदिषि, लहहि < लभसे, विसूरहि < खिद्यसे और णीसरइ < निःसरसि (हेम० 8/4/368, 383, 1, 422, 2, 439, 4:)। प्रा० भा० आ० में वर्तमान के म० पु० ए० व०
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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