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________________ क्रियापद में कुछ विकार सा उत्पन्न हो गया है। कुछ ऐसी तत्सम धातुयें हैं जो कि पालि में प्रयुक्त होने के बाद ज्यों के त्यों अपभ्रंश में सुरक्षित हैं। जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि पालि में प्रायः सभी संस्कृत धातु गणों का रूप भ्वादि की भाँति ही चलने लगा था । वही स्थिति अपभ्रंश में भी रही है जबकि संस्कृत तत्सम धातुओं का प्रयोग हुआ है । अस्तु अपभ्रंश के समस्त क्रिया रूपों पर ध्यान देने से पता चलता है कि अपभ्रंश में तद्भव रूपों का बाहुल्य है। कुछ देशज धातुयें भी प्रयुक्त हुई हैं किन्तु उनकी संख्या यदि तत्सम धातुओं से कम नहीं तो अधिक भी नहीं है सबसे बड़ी विचित्र बात तो यह है कि भूतकाल के लिये प्रयुक्त कृदन्तज प्रयोगों में तत्सम धातुओं के रूपों का प्रायः अभाव है । यदि भूलते भटकते हुए कहीं तत्सम के रूप मिल भी जायँ तो भी उनकी संख्या नगण्य ही मानी जायेगी । कृदन्त तद्भव इस बात का द्योतक है कि अपभ्रंश ने स्वतः धातुओं का निर्माण किया । उनकी अपनी स्वतः सत्ता है। नव्य भरतीय आर्य भाषाओं की धातुयें इसी से उद्भव हुई हैं। 371 हेमचन्द्र ने अपने अपभ्रंश में बहुत कम धात्वादेश के सूत्रों का विधान किया है। दोहों में धात्वादेश के अतिरिक्त बहुत सी ऐसी धातुयें प्रयुक्त दीखती हैं जो कि शौरसेनी की हैं। डॉ० गुणे एवं दलाल ने कहा है कि हेमचन्द्र के अपभ्रंश धात्वादेश उनके प्राकृत व्याकरण, द्वितीय पाद के दूसरे सूत्र से लेकर द्वितीय पाद 259 सूत्र तक हैं । वे सभी धातुयें अपभ्रंश में लागू होती हैं । धातुरूप 1. अपभ्रशं में संस्कृत की व्यंजनान्त धातु में 'अ' जोड़ कर रूप बनाये जाते हैं। भण + अ + इ = भणइ = कहता I कह् + अ + इ = कहइ = कहता है ।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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