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________________ रूप विचार 291 डॉ० तगारे का खण्डन करते हुए डॉ० भयाणी+4 ने कहा है कि तणय का रूप विशेषण की तरह चलता है (सम्बन्धी की तरह जिसे कि हेमचन्द्र ने अपने दोहों में दिखाया है) यह विशेष्य की विशेषता बताता है और सामान्यतया लिंग, वचन और कारक का अनुसरण करता है | तणय का रूप प्रत्येक कारक और दोनों वचनों में हो सकता है। भविसयत्त कहा 86-7-तहो तनयहो णामहो–में किसी भी प्रकार का दो सम्बन्ध कारक नहीं है। डॉ० तगारे ने तण का प्रयोग पश्चिमी अपभ्रंश में तृतीया विभक्ति में अधिक प्रचलित माना है। उन्होंने इसकी पुष्टि में ये उदाहरण दिये हैं। मह तणइ (परमप्प पयासु 2,186)=मदीयेन, सुकइहिं तणाई (म प० 1-128) वड्डत्तणहो तणेण (हे० 8/4/425) सिद्धत्तणहो तणेण (पाहुड़ दोहा 88)। डॉ० भयाणी का कहना है कि इन पूर्वोक्त उद्धरणों के आधार पर यह नहीं माना जा सकता कि यहाँ पर तण का प्रयोग तृतीया विभक्ति के परसर्ग के लिये हुआ है। प्रथम उद्धरण में यह तृतीया के एक वचन की विशेषता बताता है। दूसरा उद्धरण न तो तृतीया बहुवचन के लिये प्रयुक्त हुआ है और न तो तृतीया के भाव में ही प्रयुक्त हुआ है। अवशिष्ट दो उद्धरणों को हम तणेण के बाद कारणेण के उदाहरण से स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं (उदाहरण-वड्डत्तणहो तणेण कारणेण और सिद्धत्तणहो तणेण कारणेण) कि यह वस्तुतः सम्बन्ध कारक परसर्ग के लिये प्रयुक्त हुआ है। इन परिणामों के आधार पर स्पष्ट रूप से यह कहा जा सकता है कि तण का प्रयोग तृतीया परसर्ग के लिये नहीं हुआ। यह तण निपात विभक्तियों से युक्त होकर प्रयुक्त अवश्य हुआ है। किन्तु स्वतः कारक चिह्नों के अर्थों में नहीं। परवर्ती अपभ्रंश अवहट्ठ में इसका उदाहरण नहीं मिलता है। व्रज और अवधी में इसी तण का विकसित रूप तणइँ, तणइ, तन तइं, तें, ते आदि परसर्ग के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तन- पिय तन चितइ-भौंह करि बाँकी (मानस) मोहि तन लाइ दीन्ह जस होरी (तईं के अर्थ में) (पद्मावत) त्यों:- चितै तुम त्यों हमरो मन मोहै (कवितावली)
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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