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________________ रूप विचार 279 षष्ठी०-पुत्तस्सु, पुत्तसु, पुत्तहो, पुत्त पुत्तहं, पुत्त सप्तमी-पुत्ते, पुत्ति पुत्तहो, पुत्ता, पुत्त सम्बो०-पुत्त, पुत्ता पुत्तहो, पुत्तहु (i) ऊपर के रूप पुत्तो, पुत्तं, पुत्ताणं, पुत्तम्मि रूप महाराष्ट्री प्राकृत में भी है। (ii) पंचमी, षष्ठी विभक्ति के भ्रम भी हो सकता है। किन्तु सामान्यतया ये रूप अपभ्रंश के काव्यों में भी पाये जाते हैं। (iii) षष्ठी के प्रयोग में कभी अन्तर भी पाया जाता है। पेक्खंतहं रायहं मुच्छ गय, सप्तमी के अर्थ में-विमले विहाण ए कियए पयाण ए उयय इरि सिहरे रवि दीसइ। पइं जीवंत एण महु एही भइय अवस्था। यहाँ सप्तमी के स्थान पर तृतीया का योग है। इससे पता चलता है कि तृतीया और सप्तमी में भ्रम होने का सन्देह बना रहता है। (iv) ऊपर के रूपों में नासिक्यता (Nasality) कठिनाई से दीखती है। ऍ का इ, ओं का उ रूप भी सामने आने लगा। (v) कण्ह और सरह के दोहा कोशों में कुछ विशिष्ट रूप दिखाई देते हैं। उनमें (Dialectal Peculiarities) आधुनिक बोली के कुछ विशेष चिह भी दृष्टिगोचर होते हैं। (vi) कभी कभी छन्द के मुताबिक विभक्ति के प्रत्ययों को छोड़ भी दिया जाता है-जिण जम्मण अमर पराइय। सरि पवाह मिहुणई णासंतइ इत्यादि । इस प्रवृत्ति ने आधुनिक आर्य भाषा को सरलीकरण की प्रवृत्ति की ओर प्रेरित किया है। इकारान्त तथा उकारान्त रूप प्रातिपदिक इकारान्त तथा उकारान्त अपभ्रंश पुल्लिंग के शब्द रूप उकारान्त की ही भाँति होते हैं, पर उनमें कुछ विशेष अन्तर भी एकवचन बहुवचन (1) कर्ता०-गिरि, गिरी, तरु, तरू गिरि, गिरी, तरु, तरू (2) कर्म द्वि०-गिरि, गिरी, तरु, तरू गिरि, गिरी, तरु, तरू
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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