SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि < सप्तविंश, पण्णासा< पंचाशत, पण्णरह < पंचदश, अट्टावीश < अष्टाविंश, अट्ठतीस > अड़तीस (हिन्दी), छप्पण < षट्पंचत, चडसट्ठि < चतुः षष्ठि । 266 (10) अपभ्रंश में ष्ण को न्ह तथा म्ह भी होता है - कृष्ण < कान्ह, अस्मै < अम्ह, साथ ही साथ म्म भी होता है हे० 8 /4/412 ब्रह्म < वम्म, ष्ण को ट्ठ तथा हव को म्भ होता है - विदु < विण्हु < विष्णु, जिम्भा < जिह्वा का जीहा भी होता है, विंभिउ < विम्हिउ < विस्मित। (11) प्राकृत तथा अपभ्रंश में संयुक्त व्यंजन के रेफ का प्रायः लोप हो जाता है - पुव्वं < पूर्व, निज्झर < निर्झर, दिग्घो < दीर्घः, दीह रूप भी होता है, कण्णिआर < कर्णिकार । आदि वर्ण को छोड़कर यदि असंयुक्त व्यंजन हो तो प्रायः उसका द्वित्व हो जाता है-तैल < तेल्ल, वट < वड > वड्ड । ल वर्ण के बाद वाले वर्ण पर बलाघात हुआ करता है - किलन्नं > किलिन्नं क्लिष्ट > किलिट्टं । (12) ष्ट और ष्ठ को ट्ठ और स्ख को ख होता है - अट्ठारह < अट्ठारस < अष्टादश, इट्ठ < इष्ट, दिट्ठ < दृष्ट, काठ < कट्ट < काष्ठ, दिट्ठि < दृष्टि, मुट्ठि < मुष्ठि, मिट्ठ < मिष्टं, दुट्ठ < दुष्ट, पणट्ठ < प्रनष्ट, खन्ध< स्कन्ध, खम्भ < स्कम्भ | व्यंजन द्वित्व का सरलीकरण अपभ्रंश में जहाँ प्राकृत की प्रायः सभी ध्वनियाँ पाई जाती हैं वहाँ उनकी अपनी कुछ खास विशेषतायें भी हैं। उच्चारण सौकर्य को ख्याल में रखते हु व्यंजन द्वित्व को सरलीकृत कर देने की प्रवृत्ति भी अपभ्रंश में पाई जाती है । यही सरलीकरण की प्रवृत्ति नव्य भारतीय आर्य भाषा के विकास सहायक रही है। व्यंजन द्वित्व के सरली 1 करण का रूप दो तरह से पाया जाता है : (1) पूर्ववर्ती स्वर का दीर्घीकरण करना (2) पूर्ववर्ती स्वर के दीर्घीकरण के बिना ही व्यंजन का सरली करण बनाना ।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy