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________________ ध्वनि-विचार 253 स > ह-दिअह < दिवस, जहिं < जस्सिं < यस्मिन, तहिं < तस्सिं < तस्मिन्, जणहं, जणाहं (< साम * षष्ठी बहुवचन का प्रत्यय) = जनानाम्, जाणहि < जानासि । न्स < ह का अल्प प्राण स्पर्श (व्यंजन) सोष्म व्यंजन होता है। अल्प प्राण स्पर्श ऊष्म व्यंजन स का महाप्राण ह होता है। स्पंदते < * हपंदए व्यत्यय होकर पहंदए < फंदइ। वैदिक कालीन स्पर्श ऊष्म व्यंजन का रूप आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में दीख पड़ता है। वैदिक स्पशति < संस्कत पाश < हिन्दी फांस । यद्यपि अपभ्रंश में 'ह' प्रायः ह ही रहता है फिर भी कभी-कभी महाप्राण घ भी हो जाता है। दाघ < दाह < दग्ध (निदाघ)24 ह, ह का यौगिक रूप घ्न संस्कृत में जघान, ध्नन्ति रूप होते थे। अनुस्वार युक्त स्वर के बाद 'ह' हो तो उसको घ हो जाता है। अनुनासिक के बाद, अनुनासिक वर्ण के वर्ग का ह-कार युक्त वर्ण आ जाता है। यहाँ भी बहुत से अवसरों पर ह-कार युक्त वर्ण उस समय का होना चाहिये जबकि शब्द में बाद को इसके स्थान पर ह का आगमन हुआ हो 'ह' के बाद अनुनासिक व्यंजन आवे तो ह का व्यत्यय होता है। वर्ग का अनुनासिक व्यंजन हो तो वर्ग का चतुर्थ वर्ण (ऊष्म व्यंजन) का फेरफार होता है। संघारण < संहारण, संघार < संहा < सिंघ < सिंह। महा० अर्ध माग०, जै० म० और अप० में सीह25 रूप मिलता है। अप० =कन्तु जु सीहहो। शौर० सिंह, माग० में शिंह रूप है। महा० सिंघली < सिंहली, चिन्ध < * चिन्ह < चिह, महा० शौर० मागधी और अप० में चिण्ह है, बंभ < ब्राह्मण, वंभण < ब्राह्मण, महा० वम्भण्ड < ब्रह्माण्ड, आसंघइ < आसंहइ * < आशंसते, संभरइ < सम्हरइ < संस्मरति। द्वित्व व्यंजन (Doubling of Consonants) प्रो० पिशेल का कथन है कि प्राकृत भाषा में जो व्यंजन को द्वित्व करने की प्रवृत्ति पाई जाती है उस पर वैदिक स्वर का प्रभाव है। हेमचन्द्र के 8/2/98,99 प्राकृत सूत्रों में द्वित्व व्यंजन के उदाहरण पाये जाते हैं। जित्त < जितं, केत्थु < कथं, फुट्टइ < स्फुटति, उज्जु <
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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