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________________ अपभ्रंश और देशी यहाँ थीं । हेमचन्द्र के देशी नाममाला में अरबी और फारसी के भी शब्द पाये जाते हैं जो हेमचन्द्र से कुछ पूर्व देश की प्रचलित भाषाओं में घुल मिल गए थे । 183 उपर्युक्त बातों से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि साहित्यिक भाषाएँ सदा और सर्वत्र जनभाषा से ही विकसित हुई हैं । जनभाषा की तुलना बहती हुई नदी से की जा सकती है जो स्थान-स्थान पर बदलती हुई भी सदा एक धारा के समान प्रवाहित होती रहती है। साहित्यिक भाषाओं की तुलना शाखाओं से भी की जा सकती है या किसी नहर से भी उसकी तुलना की जा सकती है। नहर की धारा का बहाव सदा सीमित होता है । उसकी धारा अपने ही स्थान I पर घूम फिरकर चलती रहती है। इस तरह साहित्यिक भाषाएँ जनभाषारूपी माँ बापवाली नदी से पृथक् होकर धीरे-धीरे उनसे अपनी सत्ता पृथक् कर लेती है और अंत में उसका जनभाषा से बिलगाव हो जाता है । बिलगाव हो जाने पर जनभाषा इतनी निर्मल हो उठती है कि वह जनसाधारण के लिये बहुत ही उचित तथा बुद्धिमत्तापूर्ण प्रतीत होने लगती है । यथार्थतः भाषा का कार्य है जनता के विचारों को समाज के समक्ष स्पष्टतया प्रकट करना । जब कभी साहित्यिक भाषा जनसाध रण से दूर हो जाती है और कुछ शिक्षितों की भाषा हो जाती है तो वह कुछ काल के बाद समाप्त हो जाती है। इस बात की पुष्टि संस्कृत, प्राकृत एवं आधुनिक आर्यभाषाओं से की जा सकती है। भारतीय आर्यों की मूल भाषा की सफलता का पता बहती हुई नदी की भाँति प्राकृत से किया जा सकता है । उस समय की साहित्यिक भाषा वैदिक, परिनिष्ठित संस्कृत, पाली, प्राकृत आदि थीं। नाटकों की प्राकृत बोलियाँ, साहित्यिक अपभ्रंश, न० भा० आ० भाषा की साहित्य में सफलता तत्कालीन विभिन्न प्रांतीय प्राकृत बोलियों से हुई है और पुरानी साहित्यिक भाषाएँ क्षीण होकर मरती गई हैं। | संस्कृत तद्भव से तुलना तद्भव शब्दों की भेदकता तीन रूपों में की जाती है : 1. संस्कृत के कुछ शब्दरूप ऐसे हैं जिनमें मुख्य अक्षरों का लोप हो जाता है।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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