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________________ अपभ्रंश भाषा 107 या निर्मित होने वाला जो रूप है वही प्राकृत है। पाणिनि आदि व्याकरण से निर्मित शब्द लक्षणों से संस्कार किये हुए को संस्कृत कहते हैं। पूर्वोक्त कथन से निष्कर्ष निकला कि उसने समस्त भाषाओं की मूल जननी प्रकृति यानी प्राकृत माना है और इसी से संस्कृत आदि भाषाओं की उत्पत्ति मानी है। प्राकृत को ही मूल मानकर उसने कुछ विशिष्ट लक्षणों के कारण मागधी68 आदि की उत्पत्ति मानी है। इसी प्रकार रुद्रट द्वारा कही गयी पांचों भाषाओं का निर्देश करके, अपभ्रंश को भी उसी परिवेश में रखकर उसने प्राकत को ही अपभ्रंश कह डाला। वस्तुतः प्राकृत ही अपभ्रंश नहीं है क्योंकि उसी ने आगे चलकर अपभ्रंश के तीन उपभेद किये हैं। उन उपभेदों के लक्षण के लिये विशेष रूप से लोक को ही मुख्य स्रोत माना है। प्राकृतमेवापभ्रंशः के कथन से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि जैसे अन्य प्राकृत का मूल स्रोत प्रकृति वाला प्राकृत है जिसे कि हम परिष्कृत रूप में महाराष्ट्री प्राकृत कह सकते हैं उसी प्रकार अपभ्रंश की भी प्रकृति प्राकृत ही है। नमिसाधु की इस उक्ति में किसी भी प्रकार का अन्यथा दोष आने का भय नहीं प्रतीत होता। एक समय में यह प्राकृत की बोली (विभाषा) थी। शनैः-शनैः देश और काल की परिस्थिति के कारण इसने साहित्यिक भाषा का रूप धारण कर लिया। इस भाषा का जन्म कब हुआ इसका कोई निश्चित दिन नहीं बताया जा सकता। वस्तुतः किसी भी भाषा के विषय में निश्चित लकीर नहीं खींची जा सकती। इसी बात को थोड़ा सा परिष्कृत करके पं० राहुल सांकृत्यायन ने स्पष्ट किया है कि 'अपभ्रंश के जन्म दिन का पता लगाना संभव नहीं है।' संभवतः यह परिवर्तन कुछ समय तक बहुत धीरे-धीरे होता रहा, फिर एकाएक गुणात्मक परिवर्तन होकर, श्लिष्ट की जगह अश्लिष्ट भाषा आन उपस्थित हुई। वह वही. (प्राकृत) न होने पर भी कितनी ही बातों में वही (प्राकृत) थी। अपभ्रंश का सारा शब्दकोश और उच्चारण-क्रम प्राकृत का ही था।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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