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________________ अपभ्रंश भाषा 105 इस तरह के विधान करने से पता चलता है कि राजशेखर ने अपभ्रंश बोलने वाले स्त्री और पुरुष दोनों को एक साथ उपस्थित रहने के लिये विचार प्रस्तुत किया है। उसने कहा है कि पहली पंक्ति में वे लोग बैठे जो जनता की भाषा बोलने वाले हैं, दूसरी पंक्ति में वे लोग बैठे जो कि सामान्य जनता और राजा के बीच में हों। वे किसानों और कलाकारों की तकलीफों और इच्छाओं के विश्लेषण करने वाले हों तथा उन लोगों की बातें एवं राजाओं की बातों को उनके तक पहुंचाने वाले हों। इसलिये ऐसे लोगों को सामान्य जनता की भाषा जाननी चाहिये। इन पंक्तियों से पता चलता है कि राजशेखर के बहुत पूर्व अपभ्रंश भाषा की साहित्यिक महत्ता थी, जनसाधारण एवं परिनिष्ठित लोगों का अपभ्रंश भाषा में साम्य था। साहित्यिक भाषा साधारण की भाषा से दूर नहीं हुई थी। दोनों जीवितावस्था में, घनिष्ठता में आबद्ध थी। अपभ्रंश भाषा गंगा नदी की भाँति स्वच्छ निर्मल होकर प्रवाहित हो रही थी। इसमें तालाब की तरह रुकावट नहीं आई थी अर्थात् पुराने प्राकृत साहित्य की तरह यह अपभ्रंश भाषा मुर्दा न होकर जीवितावस्था में थी। संस्कृत वस्तुतः कुछ पण्डितों की भाषा थी। निस्सन्देह प्राकृत बहुत विस्तृत पैमाने में समझी जाती थी और संभवतः रंगमंच से सम्बन्धित कुशल अभिनेता और सुसंस्कृत लोग इसे समझते और बोलते थे। किन्तु अपभ्रंश कवियों के अनुयायी वे लोग थे जो इस भाषा को बोलने वाले एवं समझने वाले थे। इनका वर्ग बहुत विशाल था। उसमें समाज के पिछड़े एवं निम्न स्तर के लोग आते थे। अपढ़ में साधारण जनता आती थी। उन्हीं लोगों के प्रतिनिधि स्वरूप कलकार, लकड़ी पर पिच्चीकारी करने वाले, दस्तकार, बढ़ई लोहार, सोनार, मिस्त्री-घर बनाने वाले आदि आते थे। राजशेखर के इस प्रकार के सुझाव एवं चित्रण करने का यही मतलब है कि उस वर्ग के लोग अभी भी किसी न किसी प्रकार की अपभ्रंश भाषा बोलते थे। उत्तर भारत की कथ्य भाषा के पुराने साहित्य से हमें भाषा विषयक तत्कालीन तथ्य का ज्ञान होता है। 9वीं
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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